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गाथा : ५७-५९ ] पंचमो महाहियारो
[ २२७ प्रयं-महोरगदेव काल-श्यामल वर्णवाले, गन्धर्वदेव शुद्ध सुवर्ण सदृश तथा यक्ष देव कालश्यामल वर्णसे युक्त होकर शोभायमान होते हैं ॥५६।।
सुद्ध-स्सामा रक्खस-देवा भवा वि कालसामलया।
सव्ये पिसाचदेवा, कज्जल • इंगाल - कसण - तणू ।।५७।। अर्थ-राक्षसदेव शुद्ध-श्यामवर्ण, भूत कालश्यामल और समस्त पिशाचदेव कज्जल एवं इंगाल अर्थात् कोयले सदृश कृष्ण शरीर वाले होते हैं ।।५७।।
किणर-पहुदी उतरदेवा सम्वे वि सुदरा होति । सुभगा विलास - जुत्ता, सालंकारा महातेजा ॥५८।।
एवं णामा समत्ता ।।५॥ अर्थ-किन्नर आदि सब ही व्यन्तरदेव सुन्दर, सुभग, विलासयुक्त, अलङ्कारों सहित और महान् तेजके धारक होते हैं ॥५८॥.
५सका बागका कान उमाश हुआ ।।५।।
दक्षिण-उत्तर इन्द्रोंका निर्देशपढमुच्चारिद-णामा, दक्षिण-इंदा हवंति एवेसु।
चरिमुच्चारिद-णामा, उत्तर - ईका पभाव-जुदा ॥५६॥ अर्प-इन इन्द्रों में प्रथम उच्चारणवाले दक्षिणेन्द्र मोर अन्तमें (पीछे) उच्चारण नामवाले उत्तरेन्द्र हैं । ये सब इन्द्र प्रभावशाली होते हैं ॥५९||
[ तालिका पृष्ठ २२८ पर देखिये ]