________________
५४ ] तिलोयपण्णत्ती
:२३५-२३९ अर्थ - प्रत्येक चंत्यवृक्षके ईशान-दिशा-भागमें एक कोस अधिक इकतीस योजन प्रमाण विस्तारवाला दिव्य प्रासाद स्थित है ।। २३४ ।।
वासाहि दगुरण-उदो, द-कोस गाढो विचित्त-मणि-खंभो । चउ - अट्ठ - जोयणाणि, बुच्छेदाओ तद्दारे ।।२३५॥
६२ । को २ । ४ । ८। अर्थ - अनुपम मरिणमय खम्भोंसे संयुक्त इस प्रासादकी ऊचाई विस्तारसे दुगुनी ( ६२३ योजन ) ओख अवगाह दो कोस प्रमाण है । उसके द्वारका विस्तार चार ( ४ ) योजन और ऊंचाई आठ (८) योजन है ।। २३५ ॥
पजलंत-रयण-दीवा, विचित्त - सयणासणेहि परिपुण्णा । सह - रस • रूव - गंध - प्पासेहि खयमणाणंदो ॥२३६।। करण्यमय-कुड्ड-विरचिव-विचित्त-चित्त-प्पबंध-रमणिज्जो।
अच्छरिय-जगण-रूवो, कि बहुणा सो णिरुखमाणो ।।२३७।। अर्थ--उपयुक्त प्रासाद देदीप्यमान रत्नदीपकों सहित, अनुपम शय्याओं एवं आसनोंसे परिपूर्ण और शब्द, रस, रूप, गन्ध तथा स्पर्शसे इन्द्रिय एवं मनको प्रानन्दजनक, सुवर्णमय भीतों पर रचे गये अद्भुत चित्रोंके सम्बन्धसे रमणीय और प्राश्चर्यजनक स्वरूपसे संयुक्त हैं। बहुत कहनेसे क्या ? वह प्रासाद अनुपम है ।। २३६-२३७ 11
तस्सि असोयदेश्रो, रमेदि देवी - सहस्स - संजसो।
वर-रयण-मउडधारी, चमरं छत्तादि • सोहिल्लो ॥२३८॥
अर्थ-उस प्रासादमें उत्तम रस्म-मुकुटको धारण करने वाला और चमर तथा छत्रादिसे सुशोभित वह अशोक देव हजारों देवियोंसे युक्त होकर रमण करता है ॥ २३८ ।।
सेसम्मि वहजयंत-सिदए विजयं व वण्णणं सयलं । दक्षिण-पच्छिम-उत्तर-विसासु ताणं पि णयराणि ॥२३६।।
जंबूदीव-वण्णणा समत्ता। अर्थ- शेष वैजयन्तादि तीन देवोंका सम्पूर्ण वर्णन विजय देवके ही सदृश है। इनके भी नगर क्रमश: दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशामें स्थित हैं ।। २३९ ॥
इस प्रकार ( द्वितीय ) जम्बूद्वीपका वर्णन समाप्त हुआ।
१. ६. ज. रुदं छेवाग्रो, ब, रु छेदायो। २. ६. ब. गंधे। ३. ६. ज कुयमणाणंमा, ब. सुरंयमजाणंमा, क, कुणयमणारामा। ४.ब. कुडस । ५.६.य.क. ज. पि। ६.व. जंबद्वीप ।