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गाथा : २३०-२३४ ।
पंचमो महाहियारो अर्थ –उस नगरीके बाहर पच्चीस ( २५ ) योजन जाकर चार वन-खण्ड स्थित हैं। प्रत्येक वनखण्ड चैत्यबृक्षोंसे संयुक्त है ।। २२९ ।।
होंति हु तारिण" वाणि, दिवाणि असोय-सत्त-वण्णाणं ।
चंपय - घूद - वणा तह, पुब्वादि - पदाहिणि - कमेणं ॥२३०॥ अर्थ-अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र वृक्षोंके ये वन पूर्वादिक दिशाओंमें प्रदक्षिणा क्रमस हैं ।। २३० ।।
बारस-सहस्स-जोयण-दोहा ते होंति पंच-सय-रुदा । पत्तेक्कं वरणसंडा, बहुविह रुवखेहि परिपुण्णा ।।२३१॥
१२००० । ५०० । अर्थ-बहुत प्रकारके वृक्षोंसे परिपूर्ण वे प्रत्येक वन-खण्ड बारह हजार ( १२००० ) योजन लम्बे और पांच सौ ( ५०० ) योजन चौड़े हैं ।। २३१ ।।
चैत्य-वृक्ष एवेसु चेत्त-दुमा, भावण-चेत्त-दमा य सारिच्छा ।
तारणं जसु दिसासु, चउ-चउ-जिण-णाह-पडिमाओ ।।२३२॥
अर्थ-इन वनोंमें भावनलोकके चैत्यवृक्षोंके सदृश जो चैत्यवृक्ष स्थित हैं, उनको चारों दिशाओंमें चार जिनेन्द्र प्रतिमाएँ हैं ।। २३२ ।।
देवासुर-महिदाओ, सपाडिहेरानो' रयण-मइयाओ।
पल्लंक - आसणाओ, जिणिद - पडिमाओ विजयते ॥२३३।। अर्थ-देव एवं असुरोंसे पूजित, प्रातिहार्यो गहित और पद्मासन स्थित वे रत्नमय जिनेन्द्र प्रतिमाएँ जयवंत हैं ।। २३३ ।।
अशोकदेवके प्रासादका सविस्तार वर्णन चेत्तदुम' - ईसाणे, भागे चेठेवि विश्व - पासादो । इगितीस • जोयगाणि, कोसम्भहियाणि वित्थिपणो ।।२३४॥
३१ । को ।
१. द. ब. क. ज. ताए। २. द. ब. सपादिहोराओ रमणमहराभो, के. ज. सपादिहेरामो रमणमहराओ । ३, द. ब. क, ज. चेत्तदुपी पाणे भागे चेछेदि हु होदि दिवपासादो ।