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________________ ३८६ ] तिलोय पण्णत्ती सदभिस भरणी श्रद्दा, सादी तह प्रस्सिलेस जेट्ठा य । पंचतरं सहस्सा, भगणाणं सोम विक्खंभा ||५०४ ॥ - १००५ । प्रथं - शतभिषक्, भरणी, आर्द्रा, स्वाति, आश्लेषा और ज्येष्ठा इन नक्षत्र गणों के सीमाविष्कम्भ अर्थात् गगनखण्ड एक हजार पाँच ( १००५ ) हैं ।। ५०४ ।। एवं चैव यतिगुणं, पुनब्वसू रोहिणी विसाहा य । तिष्णेव उत्तराश्रो, श्रथसेसारणं हवे विगुणं ।। ५०५ ।। [ गाथा ५०४ - ५०८ अर्थ - पुनर्वसु, रोहिणी, विशाखा और तीनों उत्तरा ( उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद ), इनके गगनखण्ड इससे तिगुने ( १००५४३०३०१५ ) हैं तथा शेष ( १५ ) नक्षत्रोंके दूने ( १००५× २ = २०१० ) हैं ।। ५०५ ।। दशहरा जय य सया होंति सव्व-रिक्खाणं । बिगुणिय - गयणवखंडा, दो चंदाणं पि नादव्वं ॥ ५०६ ॥ - ५४९०० । अर्थ- -सब नक्षत्रोंके गगनखण्ड चौवन हजार नौ सौ ( ५४९०० ) हैं । दोनों चन्द्रोंके गगनखण्ड इससे दूने समझने चाहिए ||५०६ ॥ - एयं च सय सहस्सा, अट्टाणडवीसया य पडिपुण्णा । एसो मंडल छेवो, भगणाणं सोम - विवसंभो ॥५०७॥ १०९८०० । अर्थ - इसप्रकार एक लाख नौ हजार आठ सौ ( १०९८०० ) गगनखण्डोंसे परिपूर्ण यह मण्डल विभाग नक्षत्रोंकी सीमा के विस्तार स्वरूप है ।। ५०७ || नक्षत्र, चन्द्र एवं सूर्य द्वारा एक मुहूर्त में लांघने योग्य गगनखण्डों का प्रमाण 1 अट्ठारस - भाग सया, पणतीसं गच्छ मुहुत्ते । चंदो अडसट्ठी सय, सत्तरसं सीम १८३५ । १ । १७६८ । खेत्तस्स ||१०८ ॥
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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