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तिलोय पण्णत्ती
सदभिस भरणी श्रद्दा, सादी तह प्रस्सिलेस जेट्ठा य । पंचतरं सहस्सा, भगणाणं सोम विक्खंभा ||५०४ ॥
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१००५ ।
प्रथं - शतभिषक्, भरणी, आर्द्रा, स्वाति, आश्लेषा और ज्येष्ठा इन नक्षत्र गणों के सीमाविष्कम्भ अर्थात् गगनखण्ड एक हजार पाँच ( १००५ ) हैं ।। ५०४ ।।
एवं चैव यतिगुणं, पुनब्वसू रोहिणी विसाहा य । तिष्णेव उत्तराश्रो, श्रथसेसारणं हवे विगुणं ।। ५०५ ।।
[ गाथा ५०४ - ५०८
अर्थ - पुनर्वसु, रोहिणी, विशाखा और तीनों उत्तरा ( उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद ), इनके गगनखण्ड इससे तिगुने ( १००५४३०३०१५ ) हैं तथा शेष ( १५ ) नक्षत्रोंके दूने ( १००५× २ = २०१० ) हैं ।। ५०५ ।।
दशहरा जय य सया होंति सव्व-रिक्खाणं । बिगुणिय - गयणवखंडा, दो चंदाणं पि नादव्वं ॥ ५०६ ॥
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५४९०० ।
अर्थ- -सब नक्षत्रोंके गगनखण्ड चौवन हजार नौ सौ ( ५४९०० ) हैं । दोनों चन्द्रोंके गगनखण्ड इससे दूने समझने चाहिए ||५०६ ॥
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एयं च सय सहस्सा, अट्टाणडवीसया य पडिपुण्णा ।
एसो मंडल छेवो, भगणाणं सोम - विवसंभो ॥५०७॥
१०९८०० ।
अर्थ - इसप्रकार एक लाख नौ हजार आठ सौ ( १०९८०० ) गगनखण्डोंसे परिपूर्ण यह मण्डल विभाग नक्षत्रोंकी सीमा के विस्तार स्वरूप है ।। ५०७ ||
नक्षत्र, चन्द्र एवं सूर्य द्वारा एक मुहूर्त में लांघने योग्य गगनखण्डों का प्रमाण
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अट्ठारस - भाग सया, पणतीसं गच्छ मुहुत्ते । चंदो अडसट्ठी सय, सत्तरसं सीम
१८३५ । १ । १७६८ ।
खेत्तस्स ||१०८ ॥