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[ १२ ] जिन-जिन वस्तुत्रों के माप में इन भिन्न-भिन्न अंमुलों का प्रयोग करना है उनका निर्देश आचार्य ने इसी अधिकार की गाथा ११० से ११३ तक किया है। इस निर्देश के अनुसार जिस वस्तु के माप का कथन हो उसे उसी प्रकार के अंगुल से माप लेना चाहिये । जिस प्रकार १० पैसे, १० चवन्नी और १० रुपयों में १० का गुणा करने पर क्रमशः १०० पैसे, १०० चवन्नी और १०० रुपये प्रायेंगे, उसीप्रकार उत्सेध यो०, प्रमाण यो० और प्रात्म योजन के कोस बनाने के लिये ४ से गुणित करने पर क्रमशः ३ उत्सेध कोस, ३ प्रमाण कोस और ३ आत्म कोस प्राप्त होंगे। इससे यह सिद्ध हुआ कि लघु योजन और महायोजन के मध्य जो अनुपात होगा वही अनुपात यहां उत्सेध कोस और प्रमाण कोस के बीच होगा ! वही अनुपात उत्सेधांगुल और प्रमाणांगुल के बीच होगा ।
आचार्यों ने भी इसीप्रकार के माप दिये हैं । यथा---- ति० ५० खण्ड १, अधिकार २ रा, पृ. २५२ गा० ३१६ "उच्छेह जोयणाणि सत्त' ,, ,, ३ . ७ चाँ, पृ० २९२ , २०१ चत्तारि पमाण अंगुलाणं' , , , ३ , ७ या, पृ० ३१२, २७३ 'चत्तारि पमाण अंगुलाणि' धवल ४/४० घरम पंक्ति उत्सेधधनांगुल ! धवल ४/४१ पंक्ति १० प्रमाणधनांगुल । धवल ४/३४-३५ प्रमाणघागुल । ., ४/३४ मूल एवं टीका उत्सेधयोजन, प्रमाणयोजन इत्यादि ।
प्रयास करने पर भी यह माप सम्बन्धी विषय पहले बुद्धिगत नहीं हुआ था, इसलिये ति० ५० के दूसरे खण्ड में आद्यमिताक्षर पृ० १२ पर विचारणीय स्थल में प्रथम स्थल पर इसी विषय का उल्लेख किया था । दो वर्ष हो गये, कहीं से भी कोई समाधान नहीं हुप्रा । वर्तमान भीण्डर-निवास में पं. जवाहरलालजी सिद्धान्त शास्त्री के माध्यम से विषय बुद्धिगत हुआ। अत: गाथा १०७ के अर्थ की शुद्धि हेतु और जिज्ञासुजनों की तृप्ति हेतु यह स्पष्टीकरण दिया जा रहा है।
ति. प० द्वितीय खण्ड : चतुर्थ अधिकार * गाथा १६०४, १६०५ में कहा गया है कि 'ये तीर्थकर जिनेन्द्र तृतीय भब में तीनों लोकों को आश्वयं उत्पन्न करने वाले तीर्थकर नामकर्म को बाधते हैं । इस कथन का यह फलितार्थ है कि वे पाने वाले दुःषम-सुषम काल में जब तीर्थकर होंगे उसको आदि करके पूर्व के तृतीय भव में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लेंगे अर्थात् पचकल्याणक वाले ही होंगे । इन (गाथा १६०५-१६०७ में कहे हुए) २४ महापुरुषों में से राजा श्रेणिक को छोड़कर यदि अन्य को इसी भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंधक मानते हैं तो सिद्धांत से विरोध पाता है, क्योंकि तीर्थकर प्रकृति का बन्ध अन्त। कोटाकोटि