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________________ [११] को कहकर अपूर्ण विषय की पूर्ति करती है । गाथा ५६३ है जो प्रथम पथ स्थित सूर्य के बाह्य भाग में एवं शेष अन्य मार्गों में सूर्य किरणों के गमन का प्रमाण कहकर छूटे हुए विषय की पूर्ति करती है। Eat महाधिकार-गाथा ३०५ में इंद्रादि की देवियों को कहने की प्रतिज्ञा की थी उस प्रतिज्ञा फो पूर्ण करने वाली गाथा ३०६ है । गा० ३२१ लोकपाल की देवियों को कहकर छुटे हुए विषय को पूर्ण करती है । गा० ३६६ गोपुरद्वारों के अधूरे प्रमाण को पूर्ण करती है। ५५६ से ५६२ तक की ४ गाथाएँ देवों के प्राहार काल के अपूर्ण विषय को पूर्ण करती हैं । गा० ५६३-५६४ देवों के उच्छ्वास काल के विषय का प्रतिपादन करती हैं । गा० ५६५-५६६ पाठान्तर से देवों के शरीर की अवगाहना का प्रमाण कहती हैं ५६८ से ५७८ तक ११ गाथाएँ देवायु के बन्धक परिणामों को कहकर विषय की पूति करती हैं । इस प्रकार इस अधिकार में २३ गाथाएं विशेष प्राप्त हुई हैं। वो महाधिकार-१८ से २१ (४) गाथाएं सिद्ध परमेष्ठी के सुखों का कथन करके अपूर्ण विषय को पूर्ण करती हैं। गा० ८० ग्रन्थान्त मंगलाचरण को पूर्ण एवं स्पष्ट करती है । इसप्रकार इस तृतीय खण्ड में कन्नड प्रति से (२+o+५+२३+५=) ३५ माथाएं विशेष . प्राप्त हुई हैं जो सुर, अनुपलब्ध दिय : विमर्शन कराती है । विचारणीय स्थल तिलोयपण्णत्ती प्रथम खण्ड : प्रथम महाधिकार पृष्ठ २३-२४ पर दी हुई गाथा १०७ का अर्थ इस प्रकार है गाथार्थ-अंगुल तीन प्रकार का है-उत्सेधांगुल, प्रमाणांमुल और आत्मांगुल | परिभाषा से प्राप्त अंगुल उत्सेध सूच्यंगुल कहलाता है । विशेषार्थ-प्रवसनासन्न स्कन्ध से प्रारम्भ कर ५ जी का जो अंगुल बनता है वह उत्सेधसूच्यंगुल है, इसके वर्ग को उसेधप्रतरांगुल और इसीके धनको उत्सेधधनांगुल कहते हैं। इसीप्रकार सर्वत्र जानना । यथा उत्सेधसूच्यंगुल उत्से घप्रतरांगुल उत्सेधघनांगुल प्रमाणसूच्यंगुल प्रमाणप्रतरांगुल प्रमागधनांगुल आत्मसूच्यंगुल आत्मप्रतरांगुल आत्मघनांगुल (प्रमाण-जम्बूद्वीपपण्णत्ती १३/२३-२४, पृष्ठ २३७)
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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