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गाथा । ८-१२ पंचमो महाहियारो
[ २१७ प्रर्थ-जिनेन्द्र भगवान् के मुखरूपी कमलसे निकले हुए व्यन्तर-प्रज्ञप्ति नामक महाधिका रमें मवन, भवनपुर और आवास इसप्रकार तीन प्रकारके निवास कहे गये हैं। इनमेंसे रत्नप्रभा पृथिवीमें भवन, द्वीप-समुद्रोंके ऊपर भवनपुर और द्रह ( तालाब ) एवं पर्वतादिकोंके ऊपर प्रावास होते हैं ।।६-७॥
बारस-सहस्स-जोयरप-परिमारणं होदि जेट-भवणारणं । पत्तक्कं विखंभो, तिणि सयाणि च बहलत्तं ॥८॥
१२५०० । ब ३०० । अर्थ-ज्येष्ठ भवनोंमेंसे प्रत्येकका विस्तार बारह हजार (१२०००) योजन और बाहल्य तीनसो (३००) योजन प्रमाण है ।।८।।
पणुवीस जोयणाणि, रुव-पभाणं जहण्ण-भवणाणं ।
पत्तेक्कं बहलतं, ति - चउभाग - पमाणं च ॥६॥ अर्थ-जधन्य (लघु) भवनों में से प्रत्येकका विस्तार पच्चीस योजन और बाहल्य एक योजनके चार भागोंमेंसे तीन भाग ( यो०) प्रमाण है ।।६।।
ग्रहवा रुंद-पमाणं, पुह-पुह कोसा जहण्ण-भवणाणं । तब्वेदी उच्छेहो, कोदडारिण पि पणुवीसं ॥१०॥ को १ । दं २५ ।
पाठान्तरम् । अर्थ-अथवा जघन्य भवनोंके विस्तारका प्रमाण पृथक्-पृथक् एक कोस और उनकी वेदी को ऊँचाई पच्चीस (२५) धनुष प्रमाण है ॥१०॥
कूट एवं जिनेन्द्र भवनोंका निरूपणबहल-ति-भाग-पमारणा, कडा भवरणाण होंति बहुमज्झे ।
वेदी चउ - वण - तोरण - दुवार - पहुदीहि रमणिज्जा ॥११॥
अर्थ-भवनोंके बहुमध्य भागमें वेदी, चार वन और तोरण-द्वारादिकोंसे रमणीय ऐसे बाहल्य के तीसरे भाग [ ( ३००४) अर्थात् १०० योजन ] प्रमाण ऊँचे कूट होते हैं ॥११॥
फूजाण उवरि भागे, चेते जिणरिद-पासादा । कणयमया रमदमया, रयणमया विविह-विण्णासा।।१२॥