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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ५-७ अर्थ-व्यन्तर देवोंका निवास-क्षेत्र१, उनके भेदर, विविध चिन्ह ३, कुलभेद४, नाम५, दक्षिण-उत्तर इन्द्रोंके भेद६, प्रायु७, आहार८, उच्छ्वासह, अवधिज्ञान १०, शक्ति११, ऊँचाई१२, संख्या १३, एक समय में जन्म-मरण १४, प्रायुके बन्धक भाव १५, सम्यक्त्वग्रहणके विविध कारण१६ और गुणस्थानादि-विकल्प १७, ये सत्तरह (अन्तर) अधिकार होते हैं ॥२-४।।
व्यन्तरदेवोंके निवासक्षेत्रका निरूपणरज्जु-कदी गुणिदब्बा, णवणउदि-सहस्स-अहिय-लक्खेरणं । तम्मज्झे ति - वियप्पा, वेंतरदेवारण होंति पुरा ।।५।।
। १९६००० । अर्थ-राजूके वर्गको एक लाख निन्यानब हजार ( १९९०००) योजनसे गुणा करनेपर जो प्राप्त हो उसके मध्यमें व्यन्तर देवोंके तीन प्रकारके पुर होते हैं ।।५।।
विशेषार्थ'-"जगसे वि-सत्त भागो रज्ज" इस गाथा-सूत्रानुसार जगच्छणीके सातवें भाग को राजू कहते हैं । संदृष्टिके का अर्थ एक वर्ग राजू है । क्योंकि जगच्छ्र णी (-) के वर्ग (=) में ७ के वर्ग (४९) का भाग देने पर जो एक वर्ग राजू का प्रमाण प्राप्त होता है वही तिर्यग्लोकका विस्तार है अर्थात् तिर्यग्लोक एक राधू लम्बा और एक राजू चौड़ा ( १४ १= १ वर्ग राजू ) है ।
रत्नप्रभा पृथिवी १८०००० हजार योजन मोटी है । इसके तीन भाग हैं । अन्तिम अब्बहुलभाग ५०,००० योजन मोटा है, जिसमें नारकियोंका वास है । अवशेष एक लाख योजन रहा । सुमेरु पर्वत एक लाख योजन ऊँचा है जिसमेंसे १००० यो० की उसकी नींव उपयुक्त एक लाखमें गर्भित है अतः चित्रा पृथिवीके ऊपर मेरुकी ऊंचाई ६ हजार योजन है । इसप्रकार पंकभागसे मेरुपर्वतको पूर्ण ऊंचाई पर्यन्तका क्षेत्र { १०००००+९९००० = ) १९९००० यो० होता है। इसीलिए गाथामें राजूके वर्ग को एक लाख निन्यानबे हजार योजनसे गुणा करने को कहा गया है ।
व्यन्तर देवोंके निवास, भेद, उनके स्थान और प्रमाण आदिका निरूपरण
भवणं भवणपुराणि, आवासा इय हवेति ति-घियप्पा । जिण - मुहकमल - विणिग्गव-वतर-
पत्ति णामाए ॥६॥ रयणप्पह-पुढवीए, भवणाणि 'वीव-उवहि-उवरिम्मि । भयणपुराणि दह - गिरि • यहुदीणं उबरि श्रावासा ॥७॥
१..ब. भवरिण । २, द, ब, अ. तिचिहप्पा 1 ३. द. वीचकोहि ।