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तिलोयपगत्ती
[ गाथा : ६६६-६७१ प्रद्ध बमसरण-पहुविं, भावं ते भावयंति अणवरवं ।
बहु-दुक्ख-सलिल-पूरिद-संसार-समुद्द-बुड्डण - भएणं ॥६६६।।
अर्थ-बहुत दुःखरूप जलसे परिपूर्ण संसार रूपी समुद्र में डूबनेके भयसे वे लोकान्तिक देव निरन्तर अनित्य एवं अशरण आदि भावनाएं भाते हैं ।।६६६।।
तित्थयराणं समए, परिणिक्कमणम्मि जंति ते सम्वे ।
दु-चरिम-देहा देवा, बहु-विसम-किलेस-उम्मुक्का' ।।६६७।। अर्थ-द्विचरम शरीरके धारक अर्थात् एक ही मनुष्य जन्म लेकर मोक्ष जानेवाले और अनेक विषम क्लेशोंसे रहित वे सब देव तीर्थंकरोंके दीक्षा कल्याणकमें जाते हैं ॥६६७ ।
देवरिसि-णामधेया, सम्वेहि सुरेहि अच्चणिज्जा ते।
भत्ति - पसत्ता समय - साधोणा सव्य - कालेसु ॥६६८।। अर्थ-देवर्षि नाम वाले वे देव सब देवोंसे अर्चनीय, भक्तिमें प्रसस्त और सर्वकास स्वाध्याय में स्वाधीन होत है ।।६६८।।
लोकान्तिक देवोंम उत्पत्ति का कारणइह खेरी वेरगं, बहु - भेयं भाविदूण बहुकालं ।
संजम - भावेहि मो, देवा लोयंतिया होति ॥६६६।। अर्थ – इस क्षेत्र में बहुत काल पर्यन्त बहुत प्रकारके वैराग्यको भाकर संयम सहित मरण कर लौकान्तिक देव होते हैं ।।६६९।। ।
थुइ-णिदासु समाणो, सुह-दुक्खसु सबंध-रिव-बग्गे ।
जो समणो सम्मत्तो, सो च्चिय लोयंतिपो होदि' ॥६७०॥ अर्थ-जो सम्यग्दृष्टि श्रमण स्तुति और निन्दामें, सुख और दुःखमें तथा बन्धु और शत्रु वर्गमें समान है, वही लोकान्तिक होता है ।।६७०।।
जे रिवेक्खा वेहे, णिहंडा जिम्ममा णिरारंभा ।
णिरयज्जा समण-वरा, ते च्चिय लोयंतिया होंति ॥६७१॥
अर्थ-जो देहके विषय में निरपेक्ष हैं, तीनों योगोंको वश करनेवाले हैं तथा निर्ममत्व, निरारम्भ और निरवद्य हैं वे ही श्रमण श्रेष्ठ लौकान्तिक देव होते हैं ।।६७१॥
१. द. प. म. म. उभुमका। २. द. ब. क. ज. ४. मणा । ३. द, ब. ज. ठ. होति ।