SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 673
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मो महाहिया संजोग' - विपओगे, लाहालाहम्मि जीविदे मरणे । जो समय मिलोतिश्रो होति ।।६७२ ॥ गाथा : ६७२-६७७ ] अर्थ – जो श्रम संयोग और वियोग में, लाभ और अलाभमें तथा जीवित और मरणमें समष्टि होते हैं, वे ही लौकान्तिक होते हैं ।। ६७२ ।। अणवरदमप्पमत्तो, संजम समिवीसु कारण जोगेसु । तिथ्व तव चरण जुत्ता, समणा लोयंतिया होंति ।। ६७३ ॥ · अवस्थित है ।। ६७५ ॥ - अर्थ – संयम, समिति, ध्यान एवं समाधिके विषय में जो निरन्तर अप्रमत्त ( सावधान ) रहते हैं तथा तीव्र तपश्चरण से संयुक्त हैं, वे भ्रमण लौकान्तिक होते हैं ।। ६७३ ॥ 3 - पंचमहव्वय सहिदा, पंचसु समिदीसु थिर - रिणचिटुमाणा । पंचक्ख विसय विरवा, रिसिखो लोयंतिया होंति ।। ६७४ || अर्थ- पाँच महाव्रतों सहित पाँच समितियांका स्थिरता पूर्वक पालन करने वाले और पाँचों इन्द्रिय-विषयोंसे विरक्त ऋषि लोकान्तिक होते हैं ।।६७४ ।। ईषत्प्राभार (८ वी ) पृथ्वी का अवस्थान एवं स्वरूप - उवरि गंतूणं । चेदे पुढवो ||६७५ ।। अर्थ- सर्वार्थसिद्धि इन्द्रकके ध्वजदण्डसे बारह योजन प्रमारण ऊपर जाकर पाठवीं पृथिवी - सम्वसिद्धि इंदय केवणदंडादु बारस जोयणमेत्त, अदुमिया [ ६०५ पुध्वावरेण तोए, उबरिम हेट्ठिम तलेसु पत्तेक्कं । arat हवेदि एक्का, रज्जू" रुवेण परिहोणा ||६७६ ॥ १. ६. ब. सजोगयोगे । ४. द. व. क. ज. ठ. धिर । - - अर्थ-उसके उपरिम और प्रधस्तन तलमेंसे प्रत्येकका विस्तार पूर्व-पश्चिम में रूपसे रहित एक राजू प्रमाण है ।।६७६ ॥ उत्तर-दक्खिण-भाए, 'दोहा किचूण- सत्त-रज्जुम्रो । वेत्तासन - संठाणा, सा पुढवी श्रटु - जोयणा बहुला ॥१६७७॥ २. ब. क. सम्मदिट्टि । ३. द. व. ज ठ श्ररणबरदसमं पत्तो । ५. द. व. क्र. ज. ट. रज्जो । ६. द. ब. फ. ज. रु. दीह ।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy