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तिलोय पण्णत्ती
[ गाथा : ६७८-६८१
अर्थ --- वैश्रासनके सह कह पृथिवी तक्षकुछ कम सात राजू लम्बी और आठ योजन बाहुल्यवाली है ||६७७ ॥
जुत्ता घणोवहि-घणाणिल तणुवादेहि' तिहि समीहि ।
जोयरण बीस सहस्सं, पमाण बहलेहि पत्तेषकं ॥ ६७८ ॥
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अर्थ – - यह पृथिवी घनोदधि, घनवात और तनुवात इन तीन वायुनोंसे युक्त है । इनमें से प्रत्येक वायुका बाहय ( मोटाई ) बीस हजार योजन प्रमाण है || ६७८ ॥
एदाए बहुमके, खेत्तं णामेण
ईसिप भारं । अज्जुण-सुवण्ण-सरिसं णाणा रयणेह परिपुण्ण ॥६७६ ॥
अर्थ — इसके बहु-मध्य-भागमें नाना रत्नोंसे परिपूर्ण चांदी एवं स्वर्णके सदृश ईषत्प्राग्भार नामक क्षेत्र है ||६७२।
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उत्तारण धवल - छत्तोवमाण संठाण- सुंबरं एवं । पंचत्ताल जोयण लक्खाणि वास संजुतं ॥ ६८० ॥
अर्थ - यह क्षेत्र उत्तान धबल छत्रके सदृश प्राकारसे ( ४५००००० ) योजन प्रमाणसे संयुक्त है ||६६०।।
तम्मज्भ - बहलमट्ठ, जोयणया अंगुलं पि तम्मि श्रट्टम-मू- मञ्झ-गवो, तप्परिही मणुव खेत्त-परिहि समो ॥ ६८१||
८ । अं १ ।
१. . . क. ज. ठ. धरणालिबाबादेहि ।
सुन्दर और पैंतालीस लाख
अर्थ – उसका मध्य बाहुल्य आठ योजन और अन्त में एक अंगुल प्रमाण है । श्रष्टम भूमि में स्थित सिद्धक्षेत्र की परिधि मनुष्य क्षत्रको परिधिके सदृश है || ६८१ ॥
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