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________________ गाथा : ६६१-६६५ ] अवमो महाहियारो [ ६०३ उत्तर-दिसाए रिहा, अम्गि-दिसाए वि होति मज्झम्मि । एवाणे पत्तेयं, परिमाणाई' पहवेमो ॥६६॥ पत्तेक्कं सारस्सद - प्राइच्चा तुसिद - गद्दतोया य । सत्तचर - सत्त - सया, सेसा पुयोचित - पमाणा ॥६६२।। पाठान्तरम् । प्रयं-पूर्व-उत्तर कोण में सारस्वत नामक देव, पूर्व में आदित्य, अग्नि दिशामें वह्नि देव, दक्षिण दिशामें अरुण, नैऋत्य भागमें मद'तोय, पश्चिम दिशामें तुषित, वायु दिशामें अव्याबाध और उत्तर दिशामें तथा अग्नि दिशाके मध्यमें भी अरिष्ट देव रहते हैं। इनमें से प्रत्येकका प्रमाण कहते हैं । सारस्वत और आदित्य तथा तुषित और गर्द तोयमेंसे प्रत्येक सात सौ सात (७०७) और शेष देव पूर्वोक्त प्रमाण से युक्त हैं ।।६६१-६६२।। पाठान्तर । लौकान्तिक देवोंके उत्सेधादिका कथनपत्तेक्कं पण हत्था, उवभो लोयंतयाण देहेसु। अट्ठमाहण्णव - उवमा, सोहंते सुक्क - लेस्साओ ॥६६३।। अर्थ-लौकान्तिक देवों में से प्रत्येकके शरीरका उत्सेध पाच हाथ और प्रायु पाठ सागरोपम प्रमाण है । ये देव शुक्ल लेश्यासे शोभायमान होते हैं ।।६६३।। सन्वे 'लोयंतपुरा, एक्कारस-अंग-धारिणो णियमा । सम्मईसण - सुद्धा, होंति सतत्ता सहावेणं ॥६६४।। अर्थ---सब लौकान्तिक देव नियमसे ग्यारह अंगके धारी, सम्यग्दर्शनसे शुद्ध और स्वभावसे ही तृप्त होते हैं ।। ६६४॥ महिलादी परिवारा, ण होंति एदाण संततं 'जम्हा। संसार-खषण - कारण - वेरग्गं भावयंति ते तम्हा ॥६६५।। अर्थ-क्योंकि इनके महिलादिक रूप परिवार नहीं होते हैं, इसलिए ये निरन्तर संसारक्षयके कारणभूत वैराग्यकी भावना भाते हैं ।।६६५॥ १. द. ब. क. ज. है पुर्हत । २. द. 4, क. ज. 1. जे ।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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