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तिलोत्त
मिच्छत्तं अण्णाणं, पावं पुष्णं चएषि तिविहेणं । सोचियेण जोई, झायध्वो अध्ययं सुद्ध ॥५६ ।।
- मिध्यात्व, अज्ञान, पाप और पुण्य इनका ( मन, वचन, काय ) तीन प्रकार से श्याग करके योगी को निश्चय से शुद्ध आत्मा का ध्यान करना चाहिये || ५६ ॥
[ गाथा । ५६-६४
जीवो परिणमदि जया, सुहेण असुहेरण वा सुहो प्रसुहो ।
सुद्धरेण तहा सुद्धो, यदि हु परिणाम सम्भावो ॥६०॥
अर्थ- परिणाम-स्वभावरूप जीव जब शुभ प्रथवा अशुभ परिणाम से परिणमता है तब शुभ अथवा अशुभ (रूप ) होता है और जब शुद्ध परिणाम से परिणमता है तब शुद्ध होता है ॥६ना धम्मेण परिणवा, श्रप्पा जइ सुद्ध संपजोग - जुदो ।
पावs जिग्बाण- सुहं, सुहोबजुतो य सम्म सुहं ॥ ६१ ॥
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अर्थ-धर्म से परिणत आत्मा यदि शुद्ध उपयोग से युक्त होता है तो निर्वाण-सुखको भौर शुभोपयोग से युक्त होता है तो स्वर्ग सुखको प्राप्त करता है ।। ६१ ।।
असुहोबएण श्रादा', कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो । दुक्ख सहस्सेहिं सदा, श्रभिधुदो भमदि प्रच्तं ॥ ६२ ॥
अर्थ
शुभोदय से यह आत्मा कुमानुष, तिर्यञ्च और नारकी होकर सदा प्रचिन्त्य हजारों दुःखों से पीड़ित होकर संसार में अत्यन्त ( दीर्घकाल तक ) परिभ्रमण करता है ||६२|| दिसयमाद समेतं, विसयातीदं श्रणोवममणंतं ।
अछिण्णं च सुहं, सुद्ध वओोगप्प- सिद्धाणं ।। ६३॥
अर्थ- शुद्धोपयोग से उत्पन्न सिद्धों को अतिशय, आत्मोत्थ, विषयातीत, अनुपम, अनन्त और विच्छेद रहित सुख प्राप्त होता है || ६३।।
रागादि-संग-सुक्को, बहह मुखी सेय भाण झाणेणं ।
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कमिण संघायं प्रणेय भव संचियं खिप्पं ॥ ६४ ॥
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अर्थ - रागादि परिग्रह से रहित मुनि शुक्लध्यान नामक ध्यान से अनेक भवों में संचित किये हुए कर्मरूपी ईंधन के समूहको शीघ्र जला देता है ||६४||
१. द. ब. क. ज. ठ. यादी ।