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गाथा : ५-६ ] पंचमो महाहियारो
[ २४३ ग्दर्शन ग्रहण के विविध कारण मौर १७गुणस्थानादि वर्णन, इसप्रकार ये ज्योतिर्लोकके कथनमें सत्तरह अधिकार हैं ।।२-४॥
ज्योतिषदेवोंका निवासक्षेत्र-- रज्जु-कवी गणिदव्वं, एक्क-सय-दसुत्तरेहि जोयणए । तस्सि अगम्म - देसं', सोहिय सेसम्मि जोइसया ॥५॥
प्रर्थ - राजुके वर्गको एक सौ दस योजनों गुणा ( राजू२ ४११०) करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसमेंसे अगम्य देशको छोड़कर शपमें ज्योतिषी देव रहते हैं ।।५।।
अगम्य क्षेत्रका प्रमाणतं पि य अगम्म - खेतं, समवट्ट जंबुदीव - बहुमज्झे । पण-एक्क-स्त्र पण-दुग-णव-दो-ति-ख-तिय-एक्क-जोयणंक कमे ।।६।।
१३०३२९२५.० १५ ।
णिवास-खेतं समत्तं ॥१॥ अर्थ यह अगम्य क्षेत्र भी समवृत्त जम्बूद्वीपके बहुमध्य-भागमें स्थित है । उसका प्रमाण पांच, एक, शून्य, पांच, दो, नौ, दो, तीन, शून्य, तीन और एक इस अक क्रमसे जो संख्या निर्मित हो उत्तने योजन प्रमाण है ।।६।।
विशेषार्ष-त्रिलोकसार गाथा ३४५ में कहा गया है कि "ज्योतिर्गण सुमेरु पर्वतको ११२१ योजन छोड़कर गमन करते हैं" । ज्योतिर्देवोंके संचारसे रहित सुमेरुके दोनों पार्श्वभागोंका यह प्रमाण (११२१४२)=२२४२ योजन होता है। भूमिपर सुमे रुका विस्तार १०००० योजन है। इन दोनों को जोड़ देमेपर ज्योतिर्देवों के अगम्य क्षेत्रका सूत्री-व्यास ( १००००+ २२४२ = ) १२२४२ योजन प्राप्त होता है।
इसी ग्रन्थ के चतुर्थाधिकार की गाथा ९ के नियमानुसार उक्त सूची-व्यासका सूक्ष्म परिधि प्रमाण एवं क्षेत्रफल प्राप्त होता है । यथा- १२२४२२४१० = ३८७१३ योजन परिधि । ( वर्गमूल निकालने पर ३८७१२ यो० ही आते हैं । किन्तु शेष बची राशि आधे से अधिक है। अत: ३८७१३ योजन ग्रहण किये गये हैं। ) ( परिधि ३८७१३ )x(१२३४२ व्यास का चतुर्थाश )=
१. द. अग्गमदेसि ।