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________________ तिलोयपण्णत्ती सत्तमो महाहियारो मङ्गलाचरणअक्खलिय-सारण-दसण-सहियं सिरि-वासुपुज्ज-जिणसामि । णमिऊणं वोच्छामो, जोइसिय • जगस्त पणणचि ॥१॥ अर्थ-अस्खलित ज्ञान-दर्शनसे युक्त श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्रको नमस्कार करके ज्योतिर्लोकको प्रनप्ति कहता हूँ ॥१॥ रात्तरह अन्तराधिकारोंका निर्देशाजोइसिय-णिवासखिदी, भेडो संखा तहेब विण्णासो । परिमाणं चर - चारो, अचर - सरूवाणि आऊ य ।।२।। पाहारो उस्सासो, उच्छेहो प्रोहिणाण - सत्तीयो । जीवाणं उप्पत्ती - मरणाई एक्क - समम्मि ।।३।। आउग-बंधण-भावं, दसण-गहरणस्स कारणं विविहं । गुण ठाणावि - पवण्णणमहियारा सत्तरसिमाए ॥४।। । १७ ।। अर्थ-ज्योतिषी देवोंका निवासक्षेत्र, २भेद, ३संख्या, ४विन्यास, परिमाण, ६चर ज्योतिषियोंका संचार, ७अचर ज्योतिषियोंका स्वरूप, वायु, ९माहार, १० उच्छ्वास, ११उत्सेध, १२अबधिज्ञान, १३शक्ति, १४एक समय में जीवोंकी उत्पत्ति एवं मरण, १५आयु के बन्धक भाब, १६सम्य
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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