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गाथा ! १०३ ] पंचमो महाहियारो
[ २४१ अधिकारान्त मङ्गलाचरणइंद-सब-पमिद-चलणं, अणंत-सुह-णाण-विरिय-दसणया ।
भव्यंबुज - बण - भाण, सेयंस • जिणं 'णमंसामि ।।१०३।। एवमाइरिय-परंपरागय-तिलोयपण्णत्तीए नेलोग-सकल-गगणतो णाम छुटुमो
__महायिारो समत्तो ॥६॥ अर्थ सौ इन्द्रोंसे नमस्करणीय चरणोंबाले, अनन्त सुख, अनन्तज्ञान, अनन्तवीयं एवं अनन्तदर्शनवाले तथा भव्यजीवरूप कमलवनको विकसित करने के लिए सूर्य-सदृश श्रेयांस जिनेन्द्रको { मैं ) नमस्कार करता हूँ ।।१०३॥ इसप्रकार आचार्य-परंपरागत त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें व्यन्तरलोक-स्वरूप-प्रज्ञप्ति नामक
छठा महाधिकार समाप्त हुआ।
१. द.ब.क, ज. पसादम्मि
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