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तिलोय पण्णत्ती
[ गाथा : १००-१०२
प्रतरांगुल प्राप्त होते हैं । जगत्तर में इन्हीं प्रतरांगुलों का भाग देनेपर व्यन्तर देवोंका प्रमाण प्राप्त होता है ।
संख्याका कथन समाप्त हुआ ।।१३।।
एक समय में जन्म-मरणका प्रमाण
संखातीद- विभत्ते, बेंतर वासम्मि लद्ध परिमाणा ।
उष्पज्जंता जीवा, मर
अथवा=
"
| उप्पजण मरणा समता ॥ १४ ॥
अर्थ – व्यन्तरदेवोंके प्रमाण में असंख्यातका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो वहाँ उतने जीव ( प्रति समय ) उत्पन्न होते हैं और उतने ही मरते हैं ।। १०० ।।
उत्पद्यमान और त्रियम (स्वन्तर देलों) समापन समाज ।।१४।। आयु बन्धक भाव प्रादि
श्राउस - बंधण भावं, दंसण- गहणाण कारणं विविहं ।
गुणठाण - प्यहूदीणि, भरमाणं भाषण समारिष ।।१०१ ॥
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माणा होंति तम्मेत्ता ॥१००॥
अर्थ-व्यन्तरोंके श्रायु बन्धक परिणाम, सम्यग्दर्शन ग्रहणके विविध कारण और गुणस्थानादिकों का कथन भवनवासियोंके सदृश ही जानना चाहिए ।।१०१ ॥
जगत्प्रतर
आयुबंध के परिणाम, सम्यक्त्व ग्रहणकी विधि और गुरणस्थानादिकों का कथन करने वाले तीन अधिकार पूर्ण हुए ।।१५-१६-१७।।
व्यन्तरदेव-सम्बन्धी जिनभवनोंका प्रमाण
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जोयण-सद-तिय-कदी, भजिदे पवरस्स संभागम्मि ।
जं लद्ध तं माणं, वेंतर लोए जिण घराणं ॥ १०२ ॥
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संख्यात x ५३०८४१६००००००००००
7 | ५३०८४१६०००००००००० |
श्रयं जगत्प्रतर के संख्यात भागमें तीनसो योजनोंके वर्गका भाग देनेपर जो लब्ध आवे, जिनमन्दिरोंका उतना प्रमाण व्यन्तरलोक में है ।। १०२ ॥
विशेषाय - व्यन्तरलोकके जिनभवन =
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जगत्प्रतर
संख्या (३००)
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