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________________ २४० ] तिलोय पण्णत्ती [ गाथा : १००-१०२ प्रतरांगुल प्राप्त होते हैं । जगत्तर में इन्हीं प्रतरांगुलों का भाग देनेपर व्यन्तर देवोंका प्रमाण प्राप्त होता है । संख्याका कथन समाप्त हुआ ।।१३।। एक समय में जन्म-मरणका प्रमाण संखातीद- विभत्ते, बेंतर वासम्मि लद्ध परिमाणा । उष्पज्जंता जीवा, मर अथवा= " | उप्पजण मरणा समता ॥ १४ ॥ अर्थ – व्यन्तरदेवोंके प्रमाण में असंख्यातका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो वहाँ उतने जीव ( प्रति समय ) उत्पन्न होते हैं और उतने ही मरते हैं ।। १०० ।। उत्पद्यमान और त्रियम (स्वन्तर देलों) समापन समाज ।।१४।। आयु बन्धक भाव प्रादि श्राउस - बंधण भावं, दंसण- गहणाण कारणं विविहं । गुणठाण - प्यहूदीणि, भरमाणं भाषण समारिष ।।१०१ ॥ - माणा होंति तम्मेत्ता ॥१००॥ अर्थ-व्यन्तरोंके श्रायु बन्धक परिणाम, सम्यग्दर्शन ग्रहणके विविध कारण और गुणस्थानादिकों का कथन भवनवासियोंके सदृश ही जानना चाहिए ।।१०१ ॥ जगत्प्रतर आयुबंध के परिणाम, सम्यक्त्व ग्रहणकी विधि और गुरणस्थानादिकों का कथन करने वाले तीन अधिकार पूर्ण हुए ।।१५-१६-१७।। व्यन्तरदेव-सम्बन्धी जिनभवनोंका प्रमाण - जोयण-सद-तिय-कदी, भजिदे पवरस्स संभागम्मि । जं लद्ध तं माणं, वेंतर लोए जिण घराणं ॥ १०२ ॥ - संख्यात x ५३०८४१६०००००००००० 7 | ५३०८४१६०००००००००० | श्रयं जगत्प्रतर के संख्यात भागमें तीनसो योजनोंके वर्गका भाग देनेपर जो लब्ध आवे, जिनमन्दिरोंका उतना प्रमाण व्यन्तरलोक में है ।। १०२ ॥ विशेषाय - व्यन्तरलोकके जिनभवन = · जगत्प्रतर संख्या (३००) 1
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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