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तिलोयपण्णत्ती
या : ११४-११८ नृत्य, गान एवं नाटक प्रादिके द्वारा भक्ति प्रदर्शन विविहाइ गच्चणाई, वर-रयण-विभूसिवानो विधाओ।
कुश्यते 'कारणाओ, गायंति जिणिव - चरिवाणि ॥११४॥
अर्थ-उत्तम रत्नोंसे विभूषित दिव्य कन्यायें विविध नृत्य करती हैं और जिनेन्द्रके चरित्रोंको गाती हैं ।। ११४ ।।
जिण-चरिय-णाडयं ते, चउ-विहाभिरणय-भंग-सोहिल्लं ।
आणंदेणं देवा, बहु - रस - भावं पकुव्वति ॥११५।।
अर्थ-वे चार प्रकारके देव प्रानन्दके साथ अभिनयके प्रकारों से शोभायमान बहुत प्रकार के रस-भाववाले जिनचरित्र सम्बन्धी नाटक करते हैं ।। ११५॥
एवं जेत्तियमेत्ता, जिणिव - णिलया विचित्त-पूजाओ।
कुल्वंति तेत्तिएसु, णिब्भर - भत्तीस सुर - संघा' ॥११६।।
अर्थ-इसप्रकार नन्दीश्वरद्वीपमें जितने जिनेन्द्र-मन्दिर हैं, उन सबमें गाढ़ भक्ति युक्त देवगण अद्भुत रीतिसे पूजाएं करते हैं ।। ११६ ।।
कुण्डलपर्वतकी अवस्थिति एवं उसका विस्तार आदि एक्कारसमो कुण्डल-णामो वीओ हवेदि रमणिज्जो ।
एक्स्स य बहु - माझे, अत्यि गिरी कुडलो णाम ।।११७॥
अर्थ -- ग्यारहवां कुण्डल नामा रमणीक द्वीप है। इस द्वीपके बहुमध्य भागमें कुण्डल नामक पर्वत है ॥ ११७ ॥
पण्णतरी सहस्सा, उच्छेहो जोयणाणि तग्गिरियो । एक्क - सहस्सं गाई, गाणाविह - रयण - भरिदस्स ।।११८॥
७५००० । १००० प्रर्प-नाना प्रकारके रत्नोंसे भरे हुए इस पर्वतकी ऊँचाई पचहत्तर हजार (७५७००) योजन और अवगाह (नींव ) एक हजार ( १००० ) योजन प्रमाण है ॥ ११८ ।।
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१.५. ब. ज. कण्णाहो, क. कण्णाया।
२. द.ब.क.स. संखा।