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________________ गाथा : १००-११३ ] पंचमो महाहियारो बहुविह रसवंतेहि, वर भक्खेहिं विचित्त ह । श्रमय-सरच्छेहिं सुरा, जिणिद पडिमाओ महयंति ॥ १०८ ॥ → अर्थ - वे देवगण, बहुत प्रकारके रसोंसे संयुक्त, अद्भुत रूपवाले और अमृत संदेश उत्तम भोज्य-पदार्थोंसे ( नैवेद्यसे ) जिनेन्द्र- प्रतिमाओं की पूजा करते हैं ।। १०८ । - विष्फुरिद-किरण - मंडल-मंडिद-भवणेहि' रयण - बीहिं । णिक्कज्जल कलुसेहि, पूजति जिणिद पडिमाओ ॥ १०६ ॥ - पूजास अर्थ - देदीप्यमान किरण समूहसे जिन भवनों को विभूषित करनेवाले, कज्जल एवं कालुष्य रहित ( ऐसे ) रत्न-दीपकों से इन प्रतिमाओं की पूजा करते है ।। १०९ । वासिद दियंतरेहि काला गरुन् पमूह - विविध धूहि । परिमलिद मंदिरेहि, मह्यंति जिणिंद - विण ॥११०॥ अर्थ – देवगण मन्दिर एवं दिग्-मण्डलको सुगन्धित करनेवाले कालागर आदि अनेक प्रकारके धूपोंसे जिनेन्द्र - बिम्बांकी पूजा करते है ।। ११० ।। दक्खा दाडिम कदली- णारंगय माहूलिंग चूदेहि' । प्रणेहि पक्केहि, फलेहिं पूजति जिणणाहं ।। १११ ।। अर्थ - दाख, अनार, केला, नारंगी, मातुलिंग, आम तथा अन्य भी पके हुए फलों से वे देव जिननाथकी पूजा करते हैं ।। १११ ।। | २९ णचंत चमर-किकिरिण, विहि-विताणादियाहि वत्थाहि । हारेहि, अच्चति जिणेसरं देवा ।। ११२ ।। ओलंगिद - अर्थ -- वे देव विस्तीर्ण एवं लटकते हुए हारोंसे संयुक्त तथा नाचते हुए चंवर एवं किकिशियों सहित अनेक प्रकार के चंदोबा आदिसे जिनेश्वरको पूजा करते हैं ।। ११२ ।। मद्दल - मुग-भेरी-पडह-पहुवीणि विविह बज्जाणि । वायंति जिणवराणं, देवा पूजासु भवीए ॥११३॥ " श्रथ - देवगरण पूजा के समय भक्ति से मर्दल, मृदङ्ग, भेरी और पटहादि विविध बाजे बजाते हैं ।। ११३ ।। १. ब. सव हि । २. भूहि । ३. द. ब. वित्थाहि । ४. ब. मुयिंग | ५. द. ब.
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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