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गाथा । ७०-७१२ ] अट्ठमो महाहियारो
[ ६१३ देवों के अवधिज्ञानका कथनसक्कीसाणा पढम, माहिद-सरपक्कुमारया बिदियं । तवियं च बह-लंतव-वासी तुरिमं सहस्सयार'-गदा ॥७०८।। आणद-पाणद-पारण-प्रच्चद-वासी य पंचमं पढवि ।। छट्ठी पुढवी हेट्ठा, णव - विह - गेवेज्जगा देवा ॥७०६।। सव्वं च लोयगालि, अणुद्दिसाणुत्तरेसु पस्संति । सक्खेसम्मि' सकम्मे,' रूवम-गदमरगत-भागो य ॥७१०।। कप्पामराण' णिय-णिय-ओही-दव्यस्स विस्ससोवचयं । ठविदूर्ण विव्वं, तसो धुव - भागहारेणं ॥७११॥ णिय-णिय-खोणि-पदेस, सलान-संखा समप्पदै बाम ।
अंतिल्ल - खंषमेतं, एवाणं ओहि - दध्वं खु ॥७१२॥ अर्थ- सौधर्मेशान कल्पके देव अपने अवधिज्ञान से नरक की प्रथम पृथिवी पर्यन्त, सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पके देव दूसरी पृथिवी पर्यन्त, ब्रह्म और लान्तव कल्पके देव तृतीय पृथिवी पर्यन्त, सहस्रार कल्पवासी देव चतुर्थ पृथिवी पर्यन्त; आनत, प्राणत, पारण एवं अच्युत कल्पके देव पाँचवी पृथिवी पर्यन्त, नो प्रकार के ग्रंवेयक वासी देव छठी पृथिवी के नीचे पर्यन्त तथा अनुदिश एवं अनुत्तर वासी देव सम्पूर्ण लोकनाली को देखते हैं । अपने कर्म द्रव्य में अनन्त का भाग देकर अपने क्षेत्र में से एक-एक कम करना चाहिए । कल्पवासी देवों के विनसोपचय रहित अपने अवधिज्ञानावरण द्रव्यको रखकर जब तक अपने-अपने क्षेत्र-प्रदेश की शलाकाएं समाप्त न हो जावें तब तक ध्र बहार का भाग देना चाहिए । उक्त प्रकार से भाग देने पर अन्त में जो स्कन्ध रहे उत्तने प्रमाण इनके अवधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य समझना चाहिए ।१७०८-७१२।।
विशेषार्थ-वैमानिक देवों का अपना-अपना जितना-जितना अवधिज्ञानका विषयभूत क्षेत्र कहा है, उसके जितने-जितने प्रदेश हैं उन्हें एकत्र कर स्थापित करना और विस्रसोपचय रहित सत्तामें स्थित अपने-अपने अवधिज्ञानावरण कर्म के परमाणुओं को एक और स्थापित कर इस अवधिज्ञानावरण के द्रव्यको ध्र वहार का एक बार भाग देना और क्षेत्र के प्रदेश-पुज में से एक प्रदेश घटा देना । भाग देने पर प्राप्त हुई लब्धराशि में दूसरी बार उसी ध्र वहार का भाग देना और प्रदेश पुज में से
१. महाशुक्र कल्पका विषय छूट गया है। २. ब. क. ज. ठ. संखेतं । ३. द.क. ज. ठ. संकम्मे। ४.६.ब.क. ज. ठ, कप्पामराय। ५. ब. क. जीवा ।