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तिलोषपपणती
[ गाथा : ४५५-४६० अहमिन्द्रोंकी विशेषता - इंदाणं परिवारा, पडिव - पहुदो ण होंति कइया यि ।
अहमिवाणं सप्पडियाराहितो अणंत - सोक्खाणं ॥४५॥ मयं-इन्द्रोंके प्रतीन्द्र आदि परिवार होते हैं। किन्तु सपरिवार इन्द्रों की अपेक्षा अनन्त सुखसे युक्त अहमिन्द्रोंके परिवार कदापि नहीं होते ।।४५५।।
उयवाद-सभा विविहा, कप्पातीदाण होंति सव्वाणं । जिण-भवरणा पासादा, णाणाविह-दिब्व-रयणमया ।।४५६।। अभिसेय-सभा संगोय-पहवि-सालानो चित्त-रुक्खा य ।
वेवोओ ण बीसंति, कपातीदेसु कइया वि' ॥४५७।।
अर्थ-सब कल्पातीतोंके विविध प्रकारको उपपाद-सभायें, जिन-भवन, नाना प्रकारके दिव्य रत्नोंसे निमित प्रासाद, अभिषेक सभा, संगीत प्रादि शालायें और चैत्य वृक्ष भी होते हैं, परन्तु कल्पातीतोंके देवियो कदापि नहीं दीखती ।।४५६-४५७।।
गेहुच्छेहा दु - सया, पण्णभहियं सयं सयं सुद्ध। हेटिम-मज्झिम - उवरिम - गेवेज्जेसुकमा होति ।।४५८।।
२०० । १५० । १००। प्रर्थ-अधस्तन, मध्यम और उपरिम देयकों में प्रासादोंकी ऊँचाई क्रमशः दो सौ (२००), एक सौ पचास ( १५० ) और केवल सौ ( १०० ) योजन है ।।४५८।।
भवणुच्छेह - पमाणं, अणुहिसाणत्तराभिधाणेसु । पण्णासा जोयणया, कमसो पणुवीसमेत्ताणि ॥४५६।।
५० । २५ । अर्थ-अनुदिश ओर अनुत्तर नामक विमानोंमें भवनोंकी ऊँचाईका प्रमाण क्रमपाः पचास (५०) और पच्चीस योजन है ॥४५६।।
उदयस्स पंचमंसा, धीहत्तं तद्दलं च विस्थारो। पत्तेक्कं रणादव्या, कप्पातीदाण भवणेसु ।।४६०॥
एवं इव-विभूवि-परूवणा समत्ता ॥७॥
१. प. द. आदि।