SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 622
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५४ । तिलोषपपणती [ गाथा : ४५५-४६० अहमिन्द्रोंकी विशेषता - इंदाणं परिवारा, पडिव - पहुदो ण होंति कइया यि । अहमिवाणं सप्पडियाराहितो अणंत - सोक्खाणं ॥४५॥ मयं-इन्द्रोंके प्रतीन्द्र आदि परिवार होते हैं। किन्तु सपरिवार इन्द्रों की अपेक्षा अनन्त सुखसे युक्त अहमिन्द्रोंके परिवार कदापि नहीं होते ।।४५५।। उयवाद-सभा विविहा, कप्पातीदाण होंति सव्वाणं । जिण-भवरणा पासादा, णाणाविह-दिब्व-रयणमया ।।४५६।। अभिसेय-सभा संगोय-पहवि-सालानो चित्त-रुक्खा य । वेवोओ ण बीसंति, कपातीदेसु कइया वि' ॥४५७।। अर्थ-सब कल्पातीतोंके विविध प्रकारको उपपाद-सभायें, जिन-भवन, नाना प्रकारके दिव्य रत्नोंसे निमित प्रासाद, अभिषेक सभा, संगीत प्रादि शालायें और चैत्य वृक्ष भी होते हैं, परन्तु कल्पातीतोंके देवियो कदापि नहीं दीखती ।।४५६-४५७।। गेहुच्छेहा दु - सया, पण्णभहियं सयं सयं सुद्ध। हेटिम-मज्झिम - उवरिम - गेवेज्जेसुकमा होति ।।४५८।। २०० । १५० । १००। प्रर्थ-अधस्तन, मध्यम और उपरिम देयकों में प्रासादोंकी ऊँचाई क्रमशः दो सौ (२००), एक सौ पचास ( १५० ) और केवल सौ ( १०० ) योजन है ।।४५८।। भवणुच्छेह - पमाणं, अणुहिसाणत्तराभिधाणेसु । पण्णासा जोयणया, कमसो पणुवीसमेत्ताणि ॥४५६।। ५० । २५ । अर्थ-अनुदिश ओर अनुत्तर नामक विमानोंमें भवनोंकी ऊँचाईका प्रमाण क्रमपाः पचास (५०) और पच्चीस योजन है ॥४५६।। उदयस्स पंचमंसा, धीहत्तं तद्दलं च विस्थारो। पत्तेक्कं रणादव्या, कप्पातीदाण भवणेसु ।।४६०॥ एवं इव-विभूवि-परूवणा समत्ता ॥७॥ १. प. द. आदि।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy