________________
४२० ]
तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ६१७
वलय कितने होते हैं ? ऐसा कहनेपर उत्तर देते हैं कि जगच्छू णोमें चौदह लाख योजनोंका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसमें से तेईस कम करनेपर समस्त बलयोंका प्रमाण होता है । उसकी स्थापना - ( जगच्छ्रेणी ÷ १४००००० ) - २३ है ।
उपर्युक्त वलयों में स्थित चन्द्र-सूर्यो का प्रमाण
एदारणं वलयाणं संविद चंदाइच्च पमाणं वत्तहस्सामो पोक्खरवर दीवद्धस्स पहम वलए संटिव - चंदाइच्या पत्तेक्कं उबालम्भहिय एक्क सयं होवि ११४४ | १४४ | पुखरवर णीररासिस्स पढम वलए संठिद- चंबाइच्चा पत्तेषकं अट्ठासीदि-ग्रम्भहिय-वोणिसयमेतं होदि ।
.
-
-
हेडिम दीवस्स वा रयणायरस्स या पढम वलए संठिद बाइच्चादो तवर्णतरोवरिमन्दोबस्त वा गोरासिस्था पढन बलर संठिव चंदाइच्चा पत्तेषकं बुगुण-बुगुणं होऊण गच्छइ जाय सयंभुरमण समुद्दो त्ति । तत्थ अंतिम वियध्वं वत्तइस्सामो
अन्तिम समुद्र प्रथम वलय स्थित चन्द्रसूर्योका प्रमाण
१. द. व. २५००००० । ६ ।
-
―
अर्थ- - इन वलयों में स्थित चन्द्र-सूर्योका प्रमाण कहते हैं - पुष्करार्धद्वीप के प्रथम वलय में स्थित चन्द्र तथा सूर्य प्रत्येक एक सौ चवालीस ( १४४. १४४ ) हैं । पुष्करवर समुद्र के प्रथम वलय में स्थित चन्द्र एवं सूर्य प्रत्येक दो सौ अठासी (२८८- २०५ ) प्रमाण हैं । इसप्रकार अधस्तन द्वीप श्रथवा समुद्र प्रथम वलय में स्थित चन्द्र-सूर्योकी अपेक्षा तदनन्तर उपरिम द्वीप अथवा समुद्रके प्रथम वलय स्थित चन्द्र और सूर्य प्रत्येक स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त दुगुने - दुगुने होते चले गये हैं । उनमें से अन्तिम विकल्प कहते हैं
-
-
सयंभुरमणसमुहस्स पढम वलए संठिव चंदाइच्या अट्ठावीस लक्खेण भजिवगवसेढीओ पुणो च-रूब-हिद सत्तावीस-रूवेहि प्रभहियं होइ । तच्चैवं ।
1
१८००००० |
१७ ।
प्रथं - स्वयंभूरमण समुद्र के प्रथम वलय में स्थित चन्द्र और सूर्य प्रत्येक अट्ठाईस लाखसे भाजित तो जगच्छ्रणी और चार रूपोंसे भाजित सत्ताईस रूपोंसे अधिक हैं। वह यह है( जगच्छ्रेणी ९÷२५ लाख ) +
wat