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गाथा : ६१७ ] सत्तमो महाहियारो
[ ४१९ अर्थ-जम्बूद्वीप में सब ज्योतिषी देवोंके समूह मेहकी प्रदक्षिणा करते हैं, तथा धातकोखण्ड और पुष्करार्धद्वीपमें प्राधे ज्योतिषी देव मेरुको प्रदक्षिणा करते हैं ।।६१६॥
इसप्रकार चर ग्रहोंका चार समाप्त हुआ। अढ़ाई द्वोपके बाहर अचर ज्योतिषोंकी प्ररूपणामणुसुत्तरादु परदो, सयंभुरमणो त्ति दीव-उबहीणं ।
अचर - सरूव - ठिवाणं, जोइ - गणाणं परवेमो ॥६१७॥ अर्थ-मानुषोत्तर पर्वतसे पागे स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त द्वीप-समुद्रों में अवर स्वरूपसे स्थित ज्योतिषी देवोंके समूहोंका निरूपण करता हूँ ११७! मानुषोत्तरसे स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त स्थित चन्द्र-सूर्योकी
विन्यास विधिएत्तो मणुसुत्तर-गिरिद-प्पहुदि जाव सयंभुरमण-समुद्दो त्ति संठिद-चंदाइच्चाणं विण्णास-विहिं वत्तइस्सामो।
अर्थ-यहाँसे प्रागे मानुषोत्तर पर्वतसे लेकर स्वयंभूरमण-समुद्र पर्यन्त स्थित चन्द्र-सूर्योकी विन्यास-विधि कहता हूँ
तं जहा-माणुसत्तर-गिरिंदादो पण्णास-सहस्स-जोयगाणि गंतूण पढम-वलयं होदि । तत्तो परं पत्तक्कमेक्क-लक्ख-जोयणाणि गंतूण बिदियावि-वलयाणि होति जाय सयंभरमण-समुद्दो ति । गरि सयंभुरमण-समुहस्स वेदीए पण्णास-सहस्स-जोयणाणिमपाथिय तम्मि पदेसे चरिम-वलयं होदि । एवं सम्य-वलयाणि केत्तिया होति ति उसे चोद्दस-लक्ख-जोयहि भजिव-जगसेडो पुरणो तेवीस-वलएहि परिहोणं होदि । तस्स ठेवणा १४००००० रि २३ ।
अर्थ-वह इसप्रकार है-मानुषोत्तर पर्वतसे पचास हजार योजन आगे जाकर प्रथम बलय है। इसके पागे स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त प्रत्येक एक लाख योजन आगे जाकर द्वितीयादिक वलय हैं । विशेष इतना है कि स्वयंभूरमण समुद्रकी वेदीसे पचास हजार योजनोंको न पाकर अर्थात् स्वयंभूरमण समुद्रकी वेदीसे पचास हजार योजन इधर ही उस प्रदेशमें अन्तिम बलय है । इसप्रकार सर्व
१. द. य. क, वलेयं । २. द. म. क. ज. पदेस ।