SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 486
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१८ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ६१४-६१६ पंचाणउदि-सहस्सा, पंच-सया पंचतीस-अहिया । खेतम्मि माणुसाणं, चेटुते खोल - ताराओ ॥६१४॥ ९५५३५ । अर्थ--मनुष्य क्षेत्रमें पंचानब हजार पांच सौ पैंतीस स्थिर तारा स्थित हैं ।।६१४॥ मनुष्यलोकके ज्योतिषीदेवोंका एकत्रित प्रमाण द्वीप-समुद्रों | चन्द्र । तारा नक्षत्र नाम अस्थिर तारा स्थिर तारा जम्बूद्वीप १७६ १३३९५०कोडाकोड़ो का ३५२ ११२ लवणसमुद्र धातकीखण्ड ३३६ ८०३७०० १०१० १०५६ ३६९६ ६३३६ कालोदसमुद्र पृष्कराधंद्वीप ११७६ ४११२० २८१२९५० , ४८२२२०० ॥ २ २०१६ ५३२३० योग १३२ | १३२ | ११६१६ ३६९६ / ८८४०७०० कोड़ा- ९५५३५ ग्रहों की संचरण विधि-- सव्वे ससिणो सूरा, णक्खत्ताणि गहा य ताराणि । णिय-णिय-पह-पणिधीसु पंतीए चरंति णभखंडे ॥६१५॥ अर्य-चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह और तारा, ये सब अपने-अपने पथोंकी प्रणिधियोंके नभखण्डोंपर पंक्तिरूपसे संचार करते हैं ।।६१५॥ ज्योतिष देवोंकी मेरु प्रदक्षिणाका निरूपणसम्वे कुर्णति मेरु, पदाहिणं जंबुदीव-जोदि-गरणा । अद्ध - पमाणा धावसंडे तह पोक्खरद्धम्मि ॥६१६।। एवं चर-गिहाणं चारो समत्तो।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy