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तिलोत्त
[ गाया । ४९३ -४९५
श्रथं - अभिजित् नक्षत्रका मण्डल क्षेत्र अठारह योजन प्रमाण है और अपने-अपने ताराओं का मण्डल क्षेत्र स्व-स्थित आकाश प्रमाण ही है ।। ४९२ ।।
स्वाति यदि पांच नक्षत्रोंकी अवस्थिति
उद्धाओ दक्षिणाए, उत्तर-मकेसु सादि-भरणीश्रो । मूलं अभिजी - कित्तिय- रिक्खाओ चरंति जिय-मगे ॥४६३ ॥
अर्थ-स्वाति, भरणी, मूल, अभिजित् और कृत्तिका, ये पांच नक्षत्र अपने मार्गमें क्रमशः ऊर्ध्व, अधः, दक्षिण, उत्तर और मध्यमें सचार करते हैं ||४६३॥
विशेषार्थ-चन्द्र के प्रथम पथमें स्थित स्वाति एवं भरणी नक्षत्र क्रमश: अपनी वीथीके ऊर्ध्व और प्रधोभाग में, पन्द्रहवें पथमें स्थित मूल नक्षत्र दक्षिण दिशामें प्रथम पथमें स्थित अभिजित् नक्षत्र उत्तर दिशामें और छठे पथमें स्थित कृतिका नक्षत्र प्रपने पथके मध्यभाग में संचार करते हैं ।
एरिंग रिक्खाणि जिय-जिय-ममोसु पुण्य-भणिदेसु ।
णिच्चं चरंति मंदर सेलस्स पदाहिण - कमेणं ॥ ४६४ ॥
अर्थ – ये नक्षत्र मन्दर-पर्वतके प्रदक्षिण क्रमसे अपने-अपने पूर्वोक्त मार्गोमं नित्य ही संचार करते हैं ।। ४९४ ।।
कृत्तिकायादि नक्षत्रोंके अस्त एवं उदय आदिकी स्थितिएवि मघा मज्भण्हे, कित्तिय रिक्खस्स प्रत्थमण समए । उबए प्रणुराहाओ एवं जाणेज्ज सेसाणि ॥४६५ ॥
एवं क्वत्ताणं परूवणा
समत्ता ।
अर्थ - कृतिका नक्षत्र के अस्तमन कालमें मघा मध्याह्नको और अनुराधा उदयको प्राप्त होता है । इसीप्रकार शेष नक्षत्रोंके उदयादिकको भी जानना चाहिए ||४६५ ।।
विशेषार्थ ---गाथा में कृत्तिकाके अस्त होते मघाका मध्याह्न और अनुराधाका उदय होना कहा है | कृतिका मघा ८ व नक्षत्र है और मधासे अनुराधा ८ वां है । इससे यह ध्वनित होता है कि जिस समय कोई विवक्षित नक्षत्र ग्रस्त होगा, उस समय उससे आठवीं नक्षत्र मध्य को श्रीर उससे भी नक्षत्र उदयको प्राप्त होगा । शेष नक्षत्रोंके उदय प्रस्तादि की व्यवस्था भी इसीप्रकार जानने को कही गयी है । जो इसप्रकार है
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