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गाथा : ५४-६० ]
पंचमी महाहियारो
उववरण- पोखरणीहि विराजमारता विचित्त-ख्वाह । कणयमय - विरल- थंभा, सणास बहुत
श्रथं वे सब प्रासाद उत्तम कोटों तथा विचित्र गोपुरोंसे संयुक्त मणिमय तोरणों से रमणीय, नाना प्रकारके चित्रोंवाली दीवालोंसे युक्त, विचित्र रूपवाली उपवन-वापिकाओं से सुशोभित और स्वर्णमय विशाल खम्भोंने युक्त हैं तथा शयनासनों आदि से परिपूर्ण हैं ।।५३-५४ ॥ सद्द - रस-रूव-गंध, पासेहि जिरूयमेहिं सोक्खाणि । देति विविहाणि दिव्वा, पासादा धूव अर्थ-धूपकी सुगन्धसे व्याप्त ये दिव्य प्रासाद शब्द, अनुपम सुख प्रदान करते हैं ।। ५५ ।।
गंधड्ढा ।। ५५ ।।
रस, रूप, गन्ध और स्पर्शसे विविध
सट्ट यहुदीग्रो, भूमीग्रो सूसिदाओ कूडेह ।
विष्फुरिद - रयण - किरणावलोश्रो भवणेसु रेहति ॥५६॥
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अर्थ – (उन) भवनों में कूटोंसे विभूषित और प्रकाशमान रत्न - किरण पंक्तियोंसे संयुक्त सातआठ आदि भूमियाँ शोभायमान होती हैं ।। ५६ ।।
चन्द्र के परिवार देव - देवियोंका निरूपण -
तमंदिर - मज्भे
चंदा सिहासणहसमारूढा
पत्तेक्कं चंदाएं चत्तारो अग्ग महिसीओ ॥ ५७॥
! ५४ ॥
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। ४ ।
अर्थ - इन मन्दिरों के बीच में चन्द्रदेव सिहासनोंपर विराजमान रहते हैं । उनमें से प्रत्येक चन्द्र के चार ग्रमहिपियाँ ( पट्टदेवियाँ ) होती हैं ।। ५७|१
चंदाभ-सुसीमा, पहंकरा' श्रचिचमालिणी ताणं । पत्लेषक परिवारा, चत्तारि सहस्स देवीश्रो ॥५८॥ यि यि परिवार-सम, विविकरियं वरिसियंति देवीओ । चंदा परिवारा, अटु वियप्पा य पत्वक' ॥ ५६ ॥
१. द. ब. क. ज. हंकरा ।
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पडदा सामायि त रक्खा तह हवंति लिप्परिसा 1
सत्ताणीय पइण्णय प्रभियोगा किव्विसा देवा ||६०||