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गाथा : ३७-४१ ] पंचमो महाहियारो
[१३ इसप्रकार स्वयम्भूरमारा समुद्र पर्यन्त जानना चाहिए । जम्बूदीपको यादि लेकर नौ द्वीपों और लवणसमुद्र को मादि लेकर नो ममुद्रोंके
अधिपति देवोंके नाम निर्देग जंबू-लवरणादीण, दीवुनहीणं च अहियई वोणि ।
पसेवकं बेतरया, ताणं णामाणि 'साहेमि ।।३७।। अर्थ - जम्बूद्वीप एवं लवरणसमुद्रादिकोंमेंसे प्रत्येकके अधिपति जो ( दो-दो ) व्यन्तरदेव हैं. उनके नाम कहता हूँ ।। ३७ ।।
आदर-अणावरक्खा, जंबूदीवस्स अहिवई होंति ।
तह य पभासो पियदंसरतो व लवणंबुरासिम्मि ।।३।।
अर्थ-जम्बूद्वीपके अधिपति देव आदर और अनादर हैं तथा लवणसमुद्रके प्रभास और प्रियदर्शन हैं ।। ३८॥
भुजेदि प्पिय-णामा, बंसरग-णामा य धादईसंडे ।
कालोक्यस्स पहुणो, काल महाकाल-णामा य ॥३६॥ मर्थ-प्रिय और दर्शन नामक दो देव घातकीखण्ड द्वीपका उपभोग करते हैं तथा काल और महाकाल नामक दो देव कालादक-समुद्र के प्रभु हैं ।। ३६॥
पउमो पुडरियक्खो, दीवं भजति पोखरवरक्खं ।
चक्खु-सुचक्खू पहुणो, होति य मणुसुत्तर-गिरिस्स ।।४।। मर्थ --- पद्म और पुण्डरीक नामक दो देव पुष्करवरद्वीपका भोगते हैं । चक्षु और सुचक्षु नामक दो देव मानुषोत्तर पर्वतके प्रभु हैं ।। ४० ।।
सिरिपह-सिरिधर-णामा, देवा पालंति पोक्खर-समुई।
वरुणो वरुण - पहक्खो, भुजते वारुणी - बीवं ॥४१॥
प्रयं - श्रीप्रभ और श्रीधर नामक दो देव पुष्कर-समुद्रका तथा वरुण और वरुणप्रभ नामक दो देव वारुणीवर द्वीपका रक्षण करते हैं ॥ ४१ ।।
१. द. साहिमि, ब. क. ज. साहिम्मि। २. व. ब, क. अ. गिरिपत।