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________________ १४ ] तिलोयपण्णत्ती [ गाथा : ४२-४७ वारुणियर-जलहि-पहू, पामेणे मज्झि-मज्झिमा देवा । पंडरय' - पुप्फदंसा, कोई जाति होय ॥४२६६ अर्थ-मध्य और मध्यम नामक दो देव वारुणीवर-समुद्रके प्रभु हैं । पाण्डुर और पुष्पदन्त नामक दो देव क्षीरवर-दीपकी रक्षा करते हैं ।। ४ ।।। विमल-पहलखो विमलो, खीरवरंभोणिहस्स अहिवरणो । मुप्पह - घदवर - देवा, घदवर - दीवस्स अहिणाहा ।।४३॥ अर्थ :- विमलप्रभ और बिमल नामक दो देव क्षीरवर-ममुद्रके तथा सुप्रभ और घृतवर नामक दो देव घृतवर द्वीपके अधिपति हैं ।। ४३ ।। उत्तर-महप्पहक्खा, देवा रक्खंति घदवरंबुणिहिं । कणय-कणयाभ-गामा, दीवं पालंति खोदवरं ॥४४॥ अर्थ- उत्तर और महाप्रभ नामक दो देव घृतवर-समुद्रकी तथा कनक और कनकाभ नामक दो देव क्षौद्रवर-द्वीपको रक्षा करते हैं ।। ४ ४ ।। पुणं पुण्ण-पहक्खा, देवा रक्खंति खोदवर-सिंधु। गंदीसरम्मि दीये, गंध - महागंधया पहुणो ॥४५॥ अर्थ पूर्ण और पूर्णप्रभ नामक दो देव क्षीद्रवर-समुद्रकी रक्षा करते हैं। गंध और महागंध नामक दो देव नन्दीश्वर द्वीपके प्रभु हैं ।। ४५ ।। रणबीसर-बारिरिणहि, रक्खते णवि-गंदिपह-णामा । भद्द - सुभद्दा देवा, भुजते अरुणवर - दीयं ॥४६॥ अर्थ-नन्दि और नन्दिप्रभ नामक दो देव नन्दीश्वर-समुद्रकी तथा भद्र और सुभद्र नामक दो देव अरुणवर-द्वीपको रक्षा करते हैं ।। ४६ ॥ अरुणवर-वारिरासि, रक्खते अरुण-अरुणपह-णामा। अरुणभासं दीवं, भुजंति सुगंध-सव्वगंध-सुरा ॥४७॥ अर्थ-अरुण और अरुणप्रभ नामक ( व्यन्तर ) देव अरुणवर समुद्रकी तथा सुगन्ध और सर्वगन्ध नामक देव अरुणाभास-द्वीपको रक्षा करते हैं ।। ४७ ॥ १. दै. ब. क.ज, पंदरय । २. दै. ब. क.ज. खूरवरं। ३. द.क. रक्खं तं, ब. रम संतते।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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