SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 535
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा : १०७-११० ] अट्ठमो महाहियारो [ ४६७ प्रीतिङ्कर इक सम्बन्धी अखबिर विमानों का विन्यास सिन्दूरवर द्वीप और हरिसिन्दूर समृबके ऊपर है। ६२ वें आदित्य इन्त्रक सम्बन्धी श्रेणीबद्ध विमानोंका विन्यास हरिसिन्दूर द्वीप पर है । श्रेणीबद्ध विमानोंके तिर्यग् अन्तराल और विस्तारका प्रमाणहोदि 'प्रसंखेज्जाणि, एकाणं जोयणाणि विच्चालं । तिरिएणं सव्वाणं, तेत्तियमेत च वित्थारं ॥१०७॥ अर्थ-इन सब विमानोंका तिर्य गरूपसे असंख्यात योजनप्रमाण अन्तराल है और इनका विस्तार भो इतना ( असंख्यात योजन प्रमाण ) ही है ॥१०७।। शेष द्वीप-समुद्रोंपर श्रेणीबद्धोंके विन्यासका नियमएवं 'चडम्बिहेसु, सेढोबमाण होदि उत्त - कमे। प्रवसेस - बोष - उवहीसु एस्थि सेढीण विण्णासो ॥१०॥ अर्थ-इसप्रकार उक्त क्रमसे श्रेणीबद्धोंका विन्यास 'चतुर्विध ( चतुर्दिग् ) रूपमें (१) है । अवशेष द्वीप-समुद्रोंमें श्रेणीबतोंका विन्यास नहीं है ।।१०८ विशेषार्थ-प्रथम ऋतु इन्द्रकसे प्रादित्य पर्यन्त ६२ इन्द्रक सम्बन्धी सर्व श्रेणीबद्ध विमानों का विन्यास अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्रसे प्रारम्भ होकर पूर्वके हरिसिन्दूर द्वीप पर्यन्त अर्थात् १५ समुद्र और १४ द्वीपों ( २९ द्वीप-समुद्रों ) के ऊपर चारों दिशाओं में है। श्रेणीबद्ध विमानोंकी आकृति प्रादिसेढीबद्ध सम्वे, समवट्टा विविह-दिव्य-रयणमया । उल्लसिव-धय-बवाया, णिरुवमरूवा विराजंति ॥१०६।। अर्थ-सर्व श्रेणीबद्ध विमान समान गोल, विविध दिव्य रत्नोंसे निर्मित, वजा-पताकारों से उल्लसित और अनुपम रूपसे युक्त होते हुए शोभित हैं ।।१०९।। प्रकीर्णक विमानोंका अवस्थान आदिएवाणं विच्चाले, पइण्ण-कुसमोवयार-संठाणा'। होदि पडण्णय-णामा, रयणमया विविसे वर-विमाणा ॥११०।। १. व. ब. क. ज. ठ, असंखेजाणं । २. य, पविदेसु। ३. अर्थ स्पष्ट नहीं हुमा । ४. ५. व. क. ज... विमाणाणि ।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy