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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : १११-११४
- इनके ( श्र ेणीबद्धोंके ) अन्तराल में विदिशाओं में प्रकीर्णक अर्थात् बिखरे हुए पुष्पोंके सदृश स्थित, रत्नमय, प्रकीर्णक नामक उत्तम विमान हैं ।। ११० ।।
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संखेज्जासंखेज्जं सहव- जोयरण-पमारण- विक्खंभो । सव्ये पण्णयाणं, विच्चालं तेत्तियं तेसु ॥ १११ ॥
अर्थ- सब प्रकीर्णकों का विस्तार संख्यात एवं असंख्यात योजन प्रमाण है और इतना ही उनमें अन्तराल भी है ।। १११ । ।
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इंवय-सेढीबद्ध इखयाणं पि वर विमाणा ।
उबरिम-तलेषु रम्मा, एक्केक्का होदि तड-वेदी ॥ ११२ ॥
अर्थ – इन्द्रक, श्र ेणीबद्ध और प्रकीर्णक, इन उत्तम विमानोंके उपरिम एवं तल भागों में एक-एक रमणीय तट-वेदी है ।। ११२ ।।
चरियट्टालिय- चारू, बर- गोउरवार - तोरणाभरणा । धन्वंत - धय-धवाया, छरिय विसेसकर हवा ॥ ११३ ॥
विण्णासो समतो ॥२॥
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अर्थ - यह वेदी मार्गों एवं अट्टालिका भोंसे सुन्दर, उत्तम गोपुरद्वारों तथा तोरणोंसे सुशोभित, फहराती हुई ध्वजा - पताकाओंसे युक्त और श्राश्वर्य विशेषको करनेवाले रूपसे संयुक्त है ।।१९३।।
विन्यास समाप्त हुआ ||२|| कल्प और कल्पातीतका विभाग
कप्पा कप्पादीया, इवि दुविहा होवि जाक- पटला ते
बावण्ण
कव्य - पडला, कप्पातीदा य एक्करसं ॥ ११४ ॥
५२ । ११ ।
अयं स्वर्ग में कल्प और कल्पातीतके भेदसे पटल दो प्रकारके हैं। इनमें से बायन कल्प पटल और ग्यारह कल्पातीत ( कुल ५२ + ११ = ६३ ) पटल हैं ।। ११४ ।।
१. द. ब. क. ज. ठ. विमाणाणि । २. द. ब. क. ज. उ. होंति । ३. ५. ब. दय ।