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तिलोयपण्णत्ती . [ गाथा : २४७-२५२ सातों अनीकोंकी अपनी-अपनी प्रथमादि कक्षाओं में स्थित वृषभादिकोंके वर्णका वर्णन
जलहर-पडल-समुस्यिद-सरय-मयंक-सुजाल-संकासा ।
वसह-तुरंगावीया, णिय-णिय-कक्खासु पढम-कवख-ठिकी॥२४७॥
अर्थ-अपनी-अपनी कक्षाओंमेंसे प्रथम कक्षामें स्थित वृषभ-तुरंगादिक मेध-पटलसे उत्पन्न सरत्कालीन चन्द्रमाके किरण-समूहके सदृश ( वर्णं वाले) होते हैं ।।२४७॥
उपयंत-दुमणि-मंडल-समाण-यण्णा हयति यसहादी ।
ते णिय-णिय-कक्षासु, चेट्टते विदिय • कक्सासु ॥२४८॥
प्रथं-अपनी-अपनी कक्षाओं मेंसे द्वितीय कक्षामें स्थित बे वृषभादिक उदित होते हुए सूर्यमण्डलके सदृश वर्णवाले होते हैं ।।२४८।।
फुल्लत-रणीलकुवलय-सरिच्छ'-वण्णा तहज्ज-कक्ख-ठिवा।
ते णिय - णिय - कक्षासु, वसहस्स रहाविणो होति ॥२४६।।
अर्थ-अपनी-अपनी कक्षानोंमेंसे तृतीय कक्षामें स्थित वे वृषभ, अश्व' और रथादिक फूलते हुए नीलकमलके सदृश निर्मल वर्णवाने होते हैं ।।२४९।।
मरगय-मणि-सरिस-तणू, 'बर-विविह-विभूसणेहि सोहिल्ला।
ते रिणय-णिय-फक्सासु, वसहावी तुरिम - कक्ख - ठिवा ॥२५०।।
अर्थ-अपनी-अपनो कक्षामोंमेंसे चतुर्थ कक्षामें स्थित वे वृषभादिक मरकत मरिण के सदृश शरीरवाले और अनेक प्रकारके उत्तम प्राभूषणोंसे शोभायमान होते हैं ।।२५०॥
पारावय - मोराणं, कंठ - सरिच्छेहि वेह - वणेहि ।
ते णिय-णिय-कपखासु, पंचम-कक्खासु वसह-पहुदोश्रो ।।२५१।।
मर्य-अपनी-अपनी कक्षाओं में से पंचम कक्षामें स्थित वे वृषभादिक कबूतर एवं मयूरके कण्ठके सदृश देह-वर्णसे युक्त होते हैं ।।२५१।।
बर-पउमराय-बंधूय-कुसुम-संकास - देह - सोहिल्ला ।
से णिय-णिय-कक्खासु, वसहाई छट्ठ-कारख-जुवा ॥२५२।। अर्थ-अपनी-अपनी कक्षाओं में से छठी कक्षामें स्थित वृषभादिक उत्तम पद्मराग मणि अथवा बन्धूक पुष्पके वर्ण सदृश शरीरसे शोभायमान होते हैं ।।२५२।।
१. च. सरिसच्छ । २. ब. तण विविह ।