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सच है, कर्मों की गति बड़ी विचित्र होती है । चन्द्रमा एवं सूर्य को राहु और केतु नामक ग्रह विशेष से पीड़ा, सर्प तथा हाथी को भी मनुष्यों द्वारा बन्धन और विद्वद्जन की दरिद्रता देखकर अनुमान लगाया जाता है कि नियति बलवान है और फिर काल ! काल तो महाक्रूर है ! 'अपने मन कछु और है विधना के कद्दू और' । दैव दुविपाक से सुमित्राजी के विवाह के कुछ ही समय बाद उन्हें सदा के लिये मातृ-पितृ वियोग हुआ और विवाह के डेढ़ वर्ष के भीतर ही कन्या जीवन के लिये अभिशाप स्वरूप वैधव्य ने आपको आ घेरा ।
अब तो सुमित्राजी के सम्मुख समस्याओं से घिरा सुदीर्घ जीवन था । इष्ट वियोग (पति और माता-पिता) से उत्पन्न हुई असहाय स्थिति बड़ी दारुण थी। किसके सहारे जीवन-यात्रा व्यतीत होगी ? किस प्रकार निश्चित जीवन मिल सकेगा ? अवशिष्ट दीर्घजीवन का निर्वाह किस विधि होगा ? इत्यादि नाना प्रकार की विकल्प लतरियां मानस को मथने लगीं। भविष्य प्रकाशविहीन प्रतीत होने लगा । संसार में शीलवती स्त्रियां धैर्यशालिनी होती हैं, नाना प्रकार की विपत्तियों को वे हँसते-हंसते सहन करती हैं। निर्धनता उन्हें डरा नहीं सकती, रोगशोकादि से वे विचलित नहीं होतीं परन्तु प्रतिवियोगसंदृश दारुण दुःख का वे प्रतिकार नहीं कर सकती हैं। यह दुःख उन्हें असह्य हो जाता है । ऐसी दु:ख पूर्ण स्थिति में उनके लिये कल्याण का मार्ग दर्शाने वाले विरल ही होते हैं और सम्भवतया ऐसी ही स्थिति के कारण उन्हें 'अबला' भी पुकारा जाता है । परन्तु सुमित्राजी में आत्मबल प्रगट हुआ, उनके अन्तरंग में स्फुरणा हुई कि इस जीव का एक मात्र सहायक या अबलम्बन धर्म ही है । 'धर्मो रक्षति रक्षित: ' 1 अपने विवेक से उन्होंने सारी स्थिति का विश्लेषण किया और 'शिक्षार्जन' कर स्वावलम्बी ( अपने पाँवों पर खड़े ) होने का संकल्प लिया । भाइयों- श्री नीरजजी मोर श्री निर्मलजी सतना - के सहयोग से केवल दो माह पढ़ कर प्राइमरी की परीक्षा उत्तीर्ण की। मिडिल का त्रिवर्षीय पाठयक्रम दो वर्ष में पूरा किया और शिक्षकीय प्रशिक्षण प्राप्त कर श्रध्यापन की अर्हता अजित की और अनन्तर सागर के उसी महिलाश्रम में जिसमें उनकी शिक्षा का श्रीगणेश हुआ था - अध्यापिका बनकर सुमित्राजी ने स्व + अवलम्बन के अपने संकल्प का एक चरण पूर्ण किया ।
सुमित्रा ने महिलाश्रम ( विधवाश्रम ) का सुचारु रीत्या संचालन करते हुए करीब बारह वर्ष पर्यन्त प्रधानाध्यापिका का गुरुत्तर उत्तरदायित्व भी संभाला। आपके सप्रयत्नों से आश्रम में श्री पार्श्वनाथ चैत्यालय की स्थापना हुई। भाषा और व्याकरण का विशेष अध्ययन कर आपने भी 'साहित्यरत्न' और 'विद्यालंकार' की उपाधियों अजित कीं। विद्वशिरोमणि डॉ० प० पन्नालालजी साहित्याचार्य का विनीत शिष्यत्व स्वीकार कर आपने 'जैन सिद्धान्त' में प्रवेश किया और धर्मविषय में 'शास्त्री' की परीक्षा उत्तीर्ण की। अध्यापन और शिक्षार्जन की इस संलग्नता ने सुमित्राजी के जीवन विकास के नये क्षितिजों का उद्घाटन किया । शनैः शनैः उनमें 'ज्ञान का फल' अकुरित होने लगा। एक सुखद संयोग ही समझिये कि सन् १९६२ में परमपूज्य परमश्रद्धेय ( स्व ० ) आचार्यं