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[ २१ ] श्री धर्मसागरजी महाराज का वर्षायोग सागर में स्थापित हुका शाप पर निरोधवृत्ति और शान्त सौम्य स्वभाव से सुमित्राजी अभिभूत हुईं। संघस्थ प्रवर वक्ता पूज्य १०८ ( स्व ० ) श्री सन्मति - सागरजी महाराज के मार्मिक उद्बोधनों से श्रापको असीम बल मिला और श्रापने स्व + अवलम्बन के अपने संकल्प के अगले चरण की पूर्ति के रूप में चारित्र का मार्ग अंगीकार कर सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये।
विक्रम संवत् २०२१ श्रावण शुक्ला सप्तमी, दि० १४ अगस्त १९६४ के दिन परम पूज्य तपस्वी, अध्यात्मवेत्ता, चारित्रशिरोमणि, दिगम्बराचार्य १०८ श्री शिवसागरजी महाराज के पुनीत कर-कमलों से ब्रह्मचारिणी सुमित्राजी की प्रायिका दीक्षा प्रतिशय क्षेत्र पपोराजी ( म०प्र० ) में सम्पन्न हुई । अब से सुमित्राजी 'विशुद्धमती' बनीं । बुन्देलखण्ड में यह दीक्षा काफी वर्षों क अन्तराल से हुई थी अतः महती धर्मप्रभावना का कारण बनी ।
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आचार्यश्री के संघ में ध्यान और अध्ययन की दिविष्ट परम्पराठों के अनुरूप नवदीक्षित afrist के नियमित शास्त्राध्ययन का श्रीगणेश हुआ । संघस्य परम पूज्य आचार्यकल्प श्रुतसागरजी महाराज ने द्रव्यानुयोग और करणानुयोग के ग्रंथों में आर्यिका श्री का प्रवेश कराया । श्रभीक्ष्णज्ञानोपयोगी पूज्य श्रजितसागरजी महाराज ( वर्तमान पट्टाधीश प्राचार्य ) ने न्याय साहित्य, धर्म और व्याकरण के ग्रन्थों का अध्ययन कराया। जैन गणित के अभ्यास में और षट्खण्डागम सिद्धान्त के स्वाध्याय में ( स्व ० ) ० पं० रतनचन्द्रजी मुखतार आपके सहायक बने । सततपरिश्रम, अनवरत अभ्यास और सच्ची लगन के बल पर पूज्य माताजी ने विशिष्ट ज्ञानार्जन कर लिया। यहां इस बात का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा कि दीक्षा के प्रारम्भिक वर्षों में आहार में निरन्तर अन्तराय आने के कारण आपका शरीर अत्यन्त अशक्त और शिथिल हो चला था पर शरीर में बलवती आत्मा का निवास था । श्रावकों वृद्धों ही नहीं अच्छी आंखों बाल युवकों की लाब सावधानियों के बावजूद भी अन्तराय आहार में बाधा पहुँचाते रहे। आयिकाश्री की कड़ी परीक्षा होती रही । असाता के क्षमत के लिये अनेक लोगों ने अनेक उपाय करने के सुझाव दिये, आचार्यश्री ने कर्मोपशमन के लिये वृहत्शांतिमंत्र का जाप करने का संकेत किया पर आर्थिकाश्री का विश्वास रहा है कि समताभाव से कर्मों का फल भोगकर उन्हें निर्जीर्ण करना ही मनुष्य पर्याय की सार्थकता है, ज्ञानकी सार्थकता है । आपकी आत्मा उस विषम परिस्थिति में भी विचलित नहीं हुई, कालान्तर में वह उपद्रव कारण पाकर शमित हो गया । पर इस अवधि में भी उनका अध्ययन सतत जारी रहा। माथिकाश्री द्वारा की गई 'त्रिलोकसार' की टीका के प्रकाशन के अवसर पर प० पू० आचार्य १०८ श्री अजितसागरजी महाराज ने आशीर्वाद देते हुए लिखा
"सागर महिलाश्रम की अध्ययनशीला प्रधानाध्यापिका सुमित्राबाई ने अतिशय क्षेत्र पपौरा में आर्यिका दीक्षा धारण की थी। तत्पश्चात् कई वर्षों तक अन्तरायों के बाहुल्य के कारण शरीर से