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________________ गाथा : १०३-१०७ ] पंचमो महाहियारो [ २६५ अर्य-ये ( ८३ ) नगर तल यथायोग्य कहे हुए विस्तार एवं बाहल्यसे संयुक्त, ऊर्ध्वमुख गोलकार्ध सदृश और बहुत रत्नोंसे रचित हैं ।।१०२॥ सेसाओ घण्णणाओ, पुग्घिल्ल-पुराण होंति सरिसायो। कि पारेमि' भणेदु, जोहाए एक्कमेत्ताए ॥१३॥ अर्थ -इन ग्रहोंका शेष वर्णन पूर्वोक्त पुरोंके सदृश है। मात्र एक जिह्वासे इनका विशेष कथन करते हुए क्या पार पा सकता हूँ? ॥१०३।। नक्षत्र नगरियोंकी प्ररूपणाअट्ठ-सय-जोयगाणि, चउसोवि-जुदाणि उवरि-चित्तायो। गंतुण गयण - मग्गे, हवंति णखत - णयराणि ।।१०४॥ ।८८४ । अर्थ-चित्रा पृथिवीसे आठसौ चौरासो ( ८८४ ) योजन ऊपर जाकर आकाश-मार्गमें नक्षत्रोंके नगर हैं ।।१०४।। ताणि रणयर-तलाणि, बहु-रयण-मयाणि मंद-फिरणाणि । उत्साण - गोलकद्धोवमाणि रम्माणि रेहति ॥१०॥ प्रयं-ये सब ( नक्षत्रोंके ) रमणीय नगरतल बहुत रत्नोंसे निर्मित, मन्द किरणोंसे युक्त और ऊर्ध्वमुख गोलकाध सदृश होते हुए विराजमान होते हैं ।।१०५॥ उपरिम-तल-वित्थारो, ताणं कोसो तबद्ध-बहलाणि । सेसाप्रो वण्णणामो, दिणयर-णयराण सरिसाओ ॥१०६॥ प्रर्ष-उनके उपरिम तलका विस्तार एक कोस और बाहल्य इससे प्राधा है । इनका शेष वर्णन सूर्य-नगरोंके सदृश है ।।१०६।। णवरि विसेसो देवा, अभियोगा सीह-हत्थि-वसहस्सा। ते एक्केक्क - सहस्सा, पव-दिसासु ताणि धारंति ॥१०७॥ अर्थ-इतना विशेष है कि सिंह, हाथी, बैल एवं घोड़ेके प्राकारको धारण करने वाले एक-एक हजार प्रमाण आभियोग्य देव क्रमशः पूर्वादिक दिशाभोंमें उन नक्षत्र नगरोंको धारण किया करते हैं ।।१०७।। १. द.ब. पावेदिमणामो।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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