________________
तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : १०८-११२ तारा नगरियोंको प्ररूपणाउदि-जुद सत्त-जोयण-मातागि गतण उनर चिनायो ।
गयण-तले ताराणं, पुराणि बहले दहत्तर सदम्भि ।।१०८॥ अर्थ-चित्रा पृथिवीसे सात सौ नब्बै ( ७९० ) योजन ऊपर जाकर आकाश तलमें एक नौ दस ( ११० ) योजन प्रमाण बाहत्यमें साराओंके नगर हैं ।।१०८॥
ताणं पुराणि णाणा-वर-रयण-मयाणि मंद-किरणाणि ।
उत्तारण - गोलकद्धोवमाणि सासद · सरूवाणि ॥१०६।। अर्थ -उन ताराओंके पुर नाना प्रकारके उत्तम रत्नोंसे निमित, मन्द किरणोंसे संयुक्त, ऊर्ध्वमुख स्थित मोलकाधं सदृश और नित्य-स्वभाव वाले हैं ।।१०९।।
ताराओंके भेद और उनके विस्तारका प्रमाणवर-अवर-मज्झिमाणि, ति-वियप्पाणि हवंति एवाणि । उवरिम - तल - विक्खंभा, जेद्वाणं वो-सहस्स-दंडाणि ।।११०॥
। २००० 1 प्रर्थ-ये उत्कृष्ट, जघन्य और मध्यम तीन प्रकारके होते हैं। इनमेंसे उत्कृष्ट नगरोंके उपरिम तलका विस्तार दो हजार ( २००० ) धनुष प्रमाण है ।।११०॥
पंच- सयारिण धणि, तं विक्खंभा हवेदि अवराणं । दु-ति-गुणिवावर-माणं, मन्झि - मयाणं दु-ठाणेसु॥१११।।
। ५०० । १००० । १५०० । अर्थ-जघन्य नगरोंका (वह) विस्तार पांच सौ ( ५०० ) धनुष प्रमाण है। इस जघन्य प्रमाणको दो और तीनसे गुणा करनेपर क्रमश: दो स्थानोंमें मध्यम नगरोंका विस्तार क्रमशः ( ५००४२ = ) १००० धनुष एवं ( ५०० ४३= ) १५०० घनुष है ।।१११॥
ताराओंका अन्तराल एवं अन्य वर्णनतेरिच्छमंतरालं, जहण - ताराण कोस - सत्संसो। जोयणया पण्णासा, मज्झिमए सहस्समुक्कस्से ॥११२।।
को । जो ५० । १०००।
।