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________________ ५८२ 1 तिलोयपण्णत्ती [ गाथा । ५५४-५५९ सपरिवार इन्द्रों के प्राहार का कालउवहि-उवमाण-जीवी, वरिस-सहस्सेण दिव्य-अमयमयं । भुजदि मणसाहारं, णिरुवमयं तुष्टि-पुट्ठि-करं ॥५५४॥ भयं-एक सागरोपम काल पर्यन्त जीवित रहने वाला देव एक हजार वर्ष में दिव्य, अमृतमय, अनुपम और तुष्टि एवं पुष्टि कारक मानसिक आहार करता है ।।५५४।। जेत्तिय-जलरिणहि-उवमा, जो जीवदि तस्स तेसिएहि च । बरिस-सहस्सेहि हो, पाहारो पणु-दिणाणि पल्लमिदे ॥५५५।। अर्थ-जो देव जितने सागरोपम काल पर्यन्त जीवित रहता है, उसके उतने ही हजार वर्षों में प्राहार होता है। पल्य प्रमाण काल पर्यन्त जीवित रहने वाले देवों के पांच दिन में प्राहार होता है ।।५५५।। परिणइंदाणं सामाणियाण' तेत्तीस-सुर-वराणं च । भोयण-काल-पमाणं, णिय-णिय-इंदाण-सारिच्छे ॥५५६॥ अर्थ-प्रतीन्द्र, सामानिक और प्रायस्त्रिश देवों के प्राहारकाल का प्रमाण अपने-अपने इन्द्रों के सदृश है ।।५५६।। इंद-प्पादि-घउण्हं, देखोग भोयणम्मि जो समओ। तस्स पमाण-परूवण-उधएसो संपहि पणटो ॥५५७।। मर्ष–इन्द्र आदि धार (इन्द्र, प्रतीन्द्र, सामानिक और त्रायस्त्रिश इन ) की देवियों के भोजन का जो काल है उसके प्रमाण के निरूपण का उपदेश इस समय नष्ट हो गया है ।।५५७।। सोहम्मद-दिगिदे, सोमम्मि जमम्मि भोयणाबसरो । सामाणियाण ताणं, पत्तेक्कं पंचवीस-दल-दिवसा ॥५५८।। अर्थ-सौधर्म इंद्र के दिक्पालों में से सोम एवं यम के तथा उनके सामानिकों में से प्रत्येक के भोजन का काल साढ़े बारह ( १२३) दिन है ।।५५८|| तद्देवीणं तेरस-दल-दिवसा होदि भोयणावसरो । वरुणस्स कुबेरस्स य, तस्सामंतारण ऊणपण-पक्खे ॥५५६।। ॥ १५ ॥ १.६.ब.क.ब.ठ. सामाणियाण लोभो। २. द. के.ज. ठ.सारिन्छा ।
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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