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________________ ३२२ ] एवं मन्क्रिम-मग्गतं वव्यं । तिलोयपण्णत्ती ९४५३१ । । अर्थ - द्वितीय पथमें ताप - क्षेत्रको परिधि चौरानबे हजार पाँच सौ इकतीस योजन और पाँचसे भाजित चार भाग अधिक है ।। ३०७॥ विशेषार्थ - द्वितीय पथ में परिधिका प्रमाण ३१५१०६३६ योजन प्रमाण है। इससे योजन छोड़कर का गुणा करनेपर तापक्षेत्रको परिधिका प्रमाण प्राप्त होता है । यथा - ३१५१०६ × २४= ६४५३१ योजन । इसप्रकार मध्यम मार्ग पर्यन्त ले जाना चाहिए । 4 [ गाथा : ३०५-३०९ मध्यम पथमें तापक्षेत्रको परिधि - पंचाणउबि सहसा, बसुसरा जोयणाणि तिष्णि कला । पंच वित्ता मज्झिम पम्मि तावस्स परिमाणं ॥ ३०८ ॥ ६५०१० । ६ । → एवं बुचरिम-मग्गंत गोवध्वं । अर्थ - मध्यम पथ में तापका प्रमाण पंचानव हजार दस योजन और पाँचसे विभक्त तीन कला अधिक ( ९५०१० योजन ) है ।।३०८ || इसप्रकार द्विचरम मार्ग तक ले जाना चाहिए। बाह्य पथमें तापक्षेत्रका प्रमाण पण उदि सहस्सा चउ-सारिण चरणउदि जोयणा सा । पंच हिदा बाहिरए, पढम पहे संठिदे सूरे ॥ ३०६ ॥ ६५४९४ । ६ । प्रयं सूर्य के प्रथम पथमें स्थित रहनेपर बाह्य मार्गमें तापक्षेत्रका प्रमाण पंचानबे हजार चार सौ चौरानवे योजन और एक योजन के पांचवें भागसे अधिक है ।। ३०६ ॥ ३१८३१४×१६५४९४२ योजन तापक्षेत्रका प्रमाण
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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