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________________ सत्तमो महाहियारो लवणोदधिके छठे भागकी परिधि में तापक्षेत्रका प्रमाण श्रावण सहस्सा, एक सयं तेरसुहारं 'लवलं । जोयरणया च शंसा, पवित्ता पंच रुहि ॥३१० ॥ १५८११३ । ६ । गाया : ३१०-३१३ } - एवं होदि पमाणं, लवणोदहि-वास छटु-भागस्स । परिहोए ताव-खेतं, दिवसयरे पक्षम - २ भग्ग ठिदे ॥१३११॥ -- अर्थ -- सूर्यके प्रथम मार्ग में स्थित रहनेपर लवणोदधिके विस्तार के छठे भागकी परिधि में ताप क्षेत्रका प्रमाण एक लाख अट्ठावन हजार एक सौ तेरह योजन और पाँच रूपोंसे विभक्त चार भाग अधिक है ||३१०-३११॥ विशेषार्थ - लवण समुद्र के षष्ठ भागकी परिधि ५२७०४६ यो० है । ५२७६¥EX3 = १५८११३ योजन ताप क्षेत्रका प्रमाण । सूर्यके द्वितीय पथ स्थित होनेपर इच्छित परिधियों में ताप-क्षेत्र निकालने की विधि इट्ठ परिरय रासि चहतरि वो सएहि गुणिदध्वं । नव-सय- पण्णरस सहिवे, ताव-खिदे बिदिय पह-द्विदक्कस्स ।।३१२।। [ ३२३ १५५ अर्थ - इष्ट परिधि राशिको दो सौ चौहत्तरसे गुरणा करके नौ सौ पन्द्रहका भाग देनेपर — जो लब्ध आवे उतना द्वितीय पथ में स्थित सूर्यके ताप क्षेत्रका प्रमाण होता है ।।३१२ ।। विशेषार्थ -दो सूर्य मिलकर प्रत्येक परिधि को ६० मुहूर्त में पूरा करते हैं । सूर्यके द्वितीयपथमें स्थित रहते सर्व ( १६४ ) परिधियों में १७५३ मुहूर्तका दिन होता है । विवक्षित परिधि में १७ मुहूर्त का गुणाकर ६० मुहूर्तका भाग देनेपर ताप क्षेत्रकी परिधिका प्रमाण प्राप्त होता है, इसलिए गाथामें २७४ का गुणा कर ६१५ का भाग देने को कहा गया है । सूर्यके द्वितीय पथ स्थित होनेपर मेरु आदि परिधियोंमें ताप क्षेत्रका प्रमाणणवय सहसा चढ सय, उणहत्तरि जोयणा दु-सय-ता । से- णउदि जुदा 'ताही मेरुरणगे-बिदिय पह-ठिवे तपणे ॥ ३१३|| ६४६६ । १६६ । १. द. ब. क. ज. लक्खा । २. द. ज. वासरभाग ३. क. ज. तहा
SR No.090506
Book TitleTiloypannatti Part 3
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year
Total Pages736
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size15 MB
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