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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ५७६-५८० प्रर्य-लवणसमुद्र में चार, धातकीखण्डमें बारह, कालोदधिमें बयालीस और पुष्करार्धद्वीपमें बहत्तर सूर्य स्थित हैं ।।५७५।।
उपर्युक्त सूर्योका अवस्थान, प्रत्येकका चारक्षेत्र और
चारक्षेत्रका विस्तारणिय-णिय-रवीण प्रद्ध', दीव-समुद्दाण एक्क-भागम्मि। .
अवरे मा अध, चरेदि पात - कमेणेव ।।५७६॥ अर्थ-अपने-अपने सूर्योका अर्ध भाग द्वीप-समुद्रोंके एक भागमें और अर्धभाग दूसरे भागमें पंक्ति क्रमसे संचार करता है ।।५७६॥
एक्केवक-चारखेसं, दो-दो तुमणीण होवि तव्यासो। पंच-सया दस - सहिदा, विणवह - विबादिरिता य ॥५७७॥
५१०।।।। अर्थ-दो-दो सूर्योका एक-एक चारक्षेत्र होता है । इस चारक्षेत्रका विस्तार सूर्यबिम्बके विस्तारसे अधिक पांच सौ दस ( ५१० ) योजन-प्रमाण है ।।५७७।।
वीथियोंका प्रमाण एवं विस्तारएक्केवक-चारखेसे, चउसोवि-जुद-सदेवक-बोहोरो । सध्यासो प्रउवालं, जोयणया एक्क - सट्टि - हिवा ॥५७८।।
१८४ । । प्रयं-एक-एक चारक्षेत्रमें एक सौ चौरासी ( १८४ ) वीथियां होती हैं। इनका विस्तार इकसठसे भाजित अड़तालीस (H) योजन है ।।५७८।। लवणसमुद्रादिमें प्रत्येक सूर्यके बीच तथा प्रथम पथ एवं जगतीके मध्यका
अन्तर प्राप्त करनेकी विधिलवणादि-च उपकारणं, वास-पमाणम्मि रिणय-रवि-दलाएं। बिवाणि फेलिसा, तसो णियभजिदूणं जल, तं पत्तेषक रवीण विच्चालं । तस्स य अद्ध - पमाणं, जगवी-मासण्ण-मग्गाणं ॥५८०॥