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गाथा : २१०-२१५ ] अट्ठमो महाहियारो
[ ४९५ सत्तट्ट-णव-वसाविय-विचित्स-भूमीहि भूसिदा सव्वे । वर - रयण - मूसवेहिं, बहुविह - जंतेहि रमरिणज्जा ॥२१०॥ विष्पंत - रयण - बोवा, कालागरु-पहुदि-धूष-गंधड्ढा । आसण-णाजय-फोडण - साला - पहुबीहि कयसोहा ॥२११॥ सोह-करि-मयर-सिहि-सुक-यवाल-गरुडासमावि-परिपुण्णा। बहुविह-विचिच-मरिखमय-सेज्जा - विण्णास - कणिज्जा ॥२१२॥ णिच्चं विमल सरूवा, पइण्ण-वर-दोव-कुसुम-कतिल्ला । सब्बे अणाइणिहणा, प्रकट्टिमा ते विरायंति ॥२१३।।
एवं संखा-परूवणा-समता ॥६॥ अर्थ-( ये सब प्रासाद } सुवर्णमय, स्फटिकमणिमय, मरकत-माणिक्य एवं इन्द्रनील मणियोंसे निर्मित, मूगासे निर्मित, विचित्र, उत्तम तोरणोंसे सुन्दर द्वारवाले, सात-आठ-नौ-दस इत्यादि विचित्र भूमियोंसे भूषित, उत्तर रत्नोंसे भूषित, बहुत प्रकारके यन्त्रोंसे रमणीय, चमकते हुए रत्न-दीपकों सहित, कालागर आदि धूपोंके गन्धसे व्याप्त; प्रासनशाला, नाट्यशाला एवं क्रीड़नशाला आदिकोंसे शोभायमान; सिंहासन, गजासन, मकरासन, मयूरासन, शुकासन, व्यालासन एवं गरुडासनादिसे परिपूर्ण ; बहुत प्रकारकी विचित्र मणिमय शय्यानोंके विन्याससे कमनीय, निस्य, विमलस्वरूपवाले, विपुल उत्तम दीपों एवं कुसुमोसे कान्तिमान्, अनादि-निधन और प्रकृत्रिम विराजमान हैं ॥२०६-२१३।।
इसप्रकार संख्या प्ररूपणा समाप्त हुई ॥६॥ इन्द्रोंके दस-विध परिवार देवोंके नाम और पदबारस-बिह-कप्पाणं, बारस इंदा हवंति घर - रूवा।
वस-विह-परिवार-जुदा, पुष्वज्जिव-पुण्ण - पाकादो ॥२१४॥ अर्थ-बारह प्रकारके कल्पोंके बारह इन्द्र पूर्वोपार्जित पुण्यके परिपाकसे उत्तम रूपके धारक होते हैं और दस प्रकारके परिवारसे युक्त होते हैं ॥२१४||
पडिइंदा सामाणिय-सेत्तीस-सुरा दिगिद - तणुरक्खा ।
परिसाणीय-पइण्णय-अभियोगा होति किबिसिया ॥२१॥ प्रथं-प्रतीन्द्र, सामानिक, प्रायस्त्रिशदेव, दिगिन्द्र, तनुरक्ष, पारिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक, ये दस प्रकारके परिवार देव हैं ॥२१५।।