________________
५०६ ]
तिलोय पण्णत्ती
[ गाथा : २५६-२६४
अर्थ – गन्धर्वदेव षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, घवत और निषाद, इन मधुर स्वरोंको पृथक्-पृथक् गाते हैं ।। २५८ ॥
वीणा-वेणु - [पमुहं खारगाविह ताल- करण-लय- जुतं । बाइज्जदि वादित्ते, गंधवोह महुर सङ्घ ॥ २५६ ॥
·
अर्थ -- गन्धर्व देव नाना प्रकारकी ताल-क्रिया एवं लयसे संयुक्त ( होकर ) मधुर स्वरसे वीणा एवं बांसुरी आदि वादियोंको बजाते हैं ॥२५८॥
प्रत्येक कक्षा के नर्तक देत्रों के कार्य
कंदप्प - राज - राजाहिराज - विज्जाहाण चरियाणं ।
चणकचंति लट्टय सुरा, णिच्चं पढमाए कक्खाए ॥ २६० ॥
अर्थ - प्रथम कक्ष के नर्तक देव नित्य ही कन्दर्प, ( कामदेव ) राजा, राजाधिराज और विद्याधरोंके चरित्रोंका अभिनय करते हैं ।। २६०॥
पुढवीसारणं चरियं
सयलय-महादि-मंडलीयाणं । बिदियाए कक्लाए, णञ्चते गच्चणा देवा ॥ २६१ ॥
अर्थ - द्वितीय कक्षके नर्तक देव अमण्डलीक और महामण्डलीकादि पृथिवीपालकों के चरित्रका अभिनय करते हैं ।। २६१।।
पडिसत्तूर्ण विचित्त चरिवाणि ।
बलवेवाण हरीणं, तदियाए कषखाए, वर रस भावेहिं णच्वंति ॥ २६२ ॥
·
-
अर्थ-तृतीय कक्षा के नर्तक देव उत्तम रस एवं भावोंके साथ बलदेव, नारायण और प्रतिनारायणोंके अद्भुत चरित्रोंका अभिनय करते हैं ॥ २६२ ॥
-
-
चोट्स-रण-वईणं, णव- णिहि सामीण चक्कवट्टीर्ण ।
वरिय चरिताणि, णच्वंति चउत्थ - कक्लाए ||२६३॥
१. ब. क. परिवारणं ।
अर्थ-चतुर्थं कक्षा के नर्तक देव चौदह रत्नोंके अधिपति और नव निधियोंके स्वामी ऐसे तियों के आश्चर्य जनक चरित्रोंका अभिनय करते हैं ।२६३॥
सव्वाण सुरिदाणं, सलोयपालाण चारु चरियाई' ।
ते पंचम - कक्खाए, णच्वंति विचित्त भंगीहि ॥ २६४ ॥
-
i