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तिलोयपत्ती
[ गाथा : ७७-८२ अर्थ-व्यन्तरेन्द्रोंके जो कोई प्रकीर्णक और आभियोग्य आदि देव होते हैं, उनके प्रमाणका निरूपक उपदेश इम-समय नष्ट हो चुका है ।।७६॥
एवं विह - परिधारा, वेतर - इंदा सुहाइ भुजंता ।
गंदंति णिय - पुरेसु, बहुयिह कीडामो' कुडमाणा ॥७७॥ अर्थ-इस प्रकारके परिवारसे संयुक्त होकर सुखोंका उपभोग करनेवाले व्यन्तरेन्द्र अपनेअपने पुरोंमें बहुत प्रकारकी क्रीडाए करते हुए प्रानन्दको प्राप्त होते हैं ।।७७॥
गणिकामहत्तरियोंके नगरोंका अवस्थान एवं प्रमाणणिय-णिय-इंदपुरीगं, वो नितु होति माणि ।
गणिकामहल्लियाणं, वर - वेडी - पहुदि - जुत्ताणि ॥७॥
अर्थ-अपने-अपने इन्द्रकी नगरियोंके दोनों पार्श्वभागोंमें उत्तम वेदो आदि सहित गरिएकामहत्तरियोंके नगर होते हैं 11७८॥
चलसीवि-सहस्साणि, जोयणया तप्पुरीण वित्थारो । तेत्तियमेत्तं बोहं, पत्तेक्क होदि णियमेण ॥७६।।
८४०००। प्रर्थ-उन नगरियों में से प्रत्येक नगरीका विस्तार चौरासी हजार ( ८४०००) योजन प्रमाण और लम्बाई भी नियमसे इतनी ( ८४००० यो०) ही है ।।७९॥
नीचोपपाद व्यन्तरदेवोंके निवास-क्षेत्रका निरूपणणीचोषवाद - देवा, हत्थ - पमाणे वसंति भूमीदो। विगुवासि-सुरा • अंतरणियासि - कुभंड - उप्पण्णा ॥५०॥ अणपण्णा अपमाणय, गंध-महगंध-भुजंग-पीविफया । बारसमा प्रायासे, उयवण्ण यि इंद - परिवारा ॥८॥ उरि उरि वसंते, तिण्णि विणीचोववाद-ठाणादो । दस हत्थ - सहस्साइ', सेसा विउणेहि पत्तेक्क ॥२॥ ताणं विण्णास रूव संविट्ठी--
१. द. फेदीमो, ब. क. ज. केदायो।