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तिलोयपत्ती
[ गाथा : २८० - २८२
अर्थ- सूर्य के प्रथम पथमें स्थित रहते समय सब परिक्षियों में अठारह (१८) मुहूर्त का दिन और बारह (१२) मुहूर्त की रात्रि होती है ।। २७९ ॥
बाहिर - मग्गे रविणो, संठिब- कालम्मि सन्ध-परिहीसु ।
अट्टरस मुहुत्ताण, रत्ती बारस दिणं होदि ॥ २८० ॥
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१६ । १२ ।
प्रथं सूर्य के ब्राह्ममार्ग में स्थित रहते समय सर्व परिधियों में अठारह (१८) मुहूर्त की रात्रि और बारह (१२) मुहूर्तका दिन होता है || २८० ॥
विशेषार्थ - श्रावणमास में कर्क राशिपर स्थित सूर्य जब जम्बूद्वीप सम्बन्धी १८० योजन चार क्षेत्रकी प्रथम ( अभ्यन्तर ) परिधि में भ्रमण करता है तब सर्व ( सूर्यकी १८४, क्षेमा अवघ्या नगरियोंसे पुण्डरी किणी - विजया पर्यन्त क्षेत्रोंकी ८, मेरु सम्बन्धी १ और लवणसमुद्रगत जलषष्ठ सम्बन्धी १, इसप्रकार १८४+६+१+१=१९४ ) परिधियों में १८ मुहूर्त ( १४ घण्टा २४ मिनिट ) का दिन और १२ मुहूर्त ( ६ घण्टा ३६ मिनिट ) की रात्रि होती है । किन्तु जब माघ मासमें मकरराशि स्थित सूर्य लवणसमुद्र सम्बन्धी ३३० योजन चार क्षेत्रकी बाह्य परिधिमें भ्रमण करता है तब सर्व (१९४) परिधियोंम १८ मुहूर्तकी रात्रि और १२ मुहूर्तका दिन होता है ।
१५४ है ।
रात्रि और दिनको हानि-वृद्धिका चय प्राप्त करने की विधि एवं उसका प्रमाण
भूमीए 'मुहं सोहिय, रूऊणेणं पण भजिवयं ।
सा रत्तीए दिणादो, बड्ढी दिवसस्स रत्तोदो' ।। २८१ ।।
तस्स पमाणं दोणि य, मुहुत्तया एक्क सद्वि-पविहत्ता ।
दोहं विण रत्तीर्ण, पडिदिवस हारिण वड्डीश्रो ।। २८२ ॥
है।
अर्थ - भूमिमेंसे मुखको कम करके शेषमें एक कम पथ प्रमालका भाग देतेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतनी वृद्धि दिनसे रात्रि में और रात्रिसे दिनमें होती है । उस वृद्धिका प्रमाण इकसठसे विभक्त दो () मुहूर्त हैं । प्रतिदिन दिन-रात्रि दोनों में मिलकर उतनी हानि-वृद्धि हुआ करती है ।।२८१-२८२ ।।
विशेषार्थ - भूमिका प्रमाण १८ मुहूर्त, मुखका प्रमाण १२ मुहूर्त और पथका प्रमाण
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१. ६. ब. क. ज. दिगं । २. ब. रक्षितो । ३. ६.१२ । ३ । सेवा १७३ । ।
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