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गाथा : २७५-२७६ ]
सत्तमो महायिारो पण्णाधिप-दु-सयाणि, कोदंडाणं हवंति पत्तेक्कं । बहलत्तण - परिमाणं, तण्णयराणं' सुरम्माणं ॥२७५।।
२५० ।
अर्थ-उन सुरम्य नगरोंमेंसे प्रत्येकका बाहल्य प्रमाण दो सौ पचास ( २५०) धनुष होता है ।।२७।।
नोट :--गाथा २०२ में राहु नगरका बाल्य कुछ कम अर्ध यो. कहा गया है तथा पाठान्तर गाथा में २५० धनुष प्रमाण कहा गया है । किन्तु गाथा २७५ में ग्रन्थकर्ता स्वयं केतु के विमान का व्यास कुछ कम एक योजन मानते हुए भी उसका बाहुल्य २५० धनुष स्वीकार कर रहे हैं । जो विचारणीय है, क्योंकि राहु और केतुका ब्यास प्रादि शराबर ही होता है ।
घउ-गोउर-जुत्तेतु, जिणभवण-भूसिवेसु रम्मेसु ।
चेते रिट - सुरा, बहु - परिवारेहि परियरिया ।।२७६॥ अर्थ–चार गोपुरोंसे संयुक्त और जिन भवनोंसे विभूषित उन रमणीय नगरतलोंमें बहुत परिवारोंसे घिरे हुए केतुदेव रहते हैं ।। २७६।।
छम्मासेसुपुह पुह, रवि-बिंबाणं परि? - बिबाणि ।
अमवस्सा अवसाणे, छावते गदि - विसेसेणं ॥२७७॥ मर्ष-गति विशेषके कारण अरिष्ट ( केतु) विमान छह मासोंमें अमावस्याके अन्त में पृथक्-पृथक् सूर्य-बिम्बोंको आच्छादित करते हैं ।।२७७।।
अभ्यन्तर और बाह्य वीथीमें दिन-रात्रिका प्रमाणमतंङ-मंडलाणं, गमण - विसेसेण मणव - लोयम्मि ।
जे 'दिण • रत्ति मेवा, जावा तेसि पहवेमो ॥२७॥ प्रषं -मनुष्यलोक ( अढ़ाई द्वीप ) में सूर्य-मण्डलोंके गमन-विशेषसे जो दिन एवं रात्रिके विभाग हुए हैं उनका निरूपण करते हैं ।।२७८।।
पढम-पहे विणबइणो, संठिड-कालम्भि सम्व-परिहीसु। अट्टरस - मुहत्ताणि, विवसो बारस णिसा होवि ॥२७॥
१८ । १२ ।
१, प. ब. तं पराणं। २. द. ब. क. ज. खेत्तेसु। ३. ६. ब. दिणवति ।