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तिलोसपण्णत्ती
[ गाथा : ७२७ अधिकारान्त मङ्गलाचरणचल-गाइ-पंक-मिग णिमय-सर-मोक्ख-लच्छि-मुह-मुकुरं। पालदि य धम्म - तित्थं, धम्म - जिणिदं णमंसामि ॥७२७।। एवंमाइरिय-परंपरा-गव-तिलोयपण्णत्तीए देवलोय-सरूव'.
णिरूवण-पण्णत्तो णाम
प्रीमो महाहियारो समत्तो ॥६॥ अर्थ-जो चतुर्गतिरूप पतसे रहित, निर्मल एवं उत्तम मोक्ष-लक्ष्मी के मुख के मुकुर (दर्पण) स्वरूप तथा धर्म-तीर्थ के प्रतिपादक हैं, उन धर्म जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ ॥७२७।।
इसप्रकार आचार्य - परम्परागत त्रिलोकप्रज्ञप्ति में देवलोक - स्वरूप - निरूपण प्रज्ञप्ति नामक।
आठवां महाधिकार समाप्त हुमा ।।८।।
१.व.ब. सहवण।