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[ २४ ] की प्रशंसा सुन जहाँ प्रसन्नता हुई वहाँ अपार वेदना भी हुई। प्रस्तावना की ये पंक्तियां लिखते समय वह प्रकरण स्मृति में आ गया और नेत्र सजल हो गये । लगा, कि जिसकी इतनो अभिरुचि है अध्ययन में, वह अवश्य ही होनहार है । ........ त्रिलोकसार की टीका लिखकर प्रस्तावना लेख के लिए जब मेरे पास मुद्रित फर्मे भेजे गये तब मुझे लगा कि यह इनके तपश्चरण का ही प्रभाव है कि इनके ज्ञान में आश्चर्यजनक वृद्धि हो रही है । वस्तुतः परमायं भी यही है कि द्वादशांग का जितना विस्तार हम सुनते हैं वह सब गुरुमुख से नहीं पढ़ा जा सकता। तपश्चर्या के प्रभाव से स्वयं ही शानावरण का ऐसा विशाल क्षयोपशम हो जाता है कि जिससे अंगपूर्व का भी विस्तृत ज्ञान अपने आप प्रकट हो जाता है । श्रुतकेवली बनने के लिये निर्ग्रन्य मुद्रा के साथ विशिष्ट तपश्चरण का होना भी आवश्यक रहता है।"
दृढ़ संयमी, मामार्ग की कट्टर पोषक, निस्पृह, परम विदुषी, अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी, निर्भीक उपदेशक, आगम मर्मस्पर्शी, मोक्षमार्ग की पथिक, स्वपर उपकारी पूज्य माताजी के चरणों में शत शत नमोस्तु निवेदन करता हूँ और उनके दीर्घ स्वस्थ जीवन की कामना करता हूँ ताकि उनकी स्यावाद मयी लेखनी से जिनवाणी का हार्द हमें इसीप्रकार प्राप्त होता रहे और इस विषमकाल में हम भ्रान्त जीवों को सच्चा मार्गदर्शन मिलता रहे । पूज्य माताजी के पुनीत चरणों में शत शत वन्दन । इति शुभम्
--चेतनप्रकाश पाटनी