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तिलोयपणत्ती
[ गाथा : ५५६-५६०
यो)
एक्केवक-चारखेत, बो-दो चंदाण होवि तन्वासो।
पंच-सया वस सहिदा, दिणयर-बिबादि - रित्ता य ॥५५६॥
अर्थ-दो-दो चन्द्रोंका एक-एक पारक्षेत्र है और उसका विस्तार सूर्यबिम्ब ( से अधिक पांच सौ दस ( ५१०१६ ) योजन प्रमाण है 11५५६॥
पुह-पुह चारक्खेत्ते, पण्णरस हवंति चंद-बोहोरो । तथ्यासो छप्पण्णा, जोयणया एक्क-सद्धि-हिवा ॥५५७।।
अर्थ-पृथक्-पृथक् चारक्षेत्रमें जो पन्द्रह-पन्द्रह चन्द्र-वीथियां होती हैं। उनका विस्तार इकसठसे भाजित छप्पन (8) योजन प्रमाण है ॥५५७॥ चन्द्र के अभ्यन्तर पथमें स्थित होनेपर प्रथम पथ व द्वीप-समुद्रजगतीके बीच अन्तराल
णिय-णिय-चंद-पमाणं, भजिदूर्ण एक्क-सटि-रूवेहिं । अडवीसेहिं गुणिदं, सोहिय णिय-उयहि-दोष-वासम्मि ॥५५८॥ ससि-संखाए विही, हल्बनभवन दीहि दिन।
दोवाणं उबहीणं, आदिम-पह-जगदि-विच्चालं ॥५५६॥
अयं अपने-अपने चन्द्रों के प्रमाणमें इकसठ (६१) रूपोंका भाग देकर अढाईस (२८) से गुणा करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसे अपने द्वीप या समुद्र के विस्तारमेंसे घटाकर चन्द्र संख्यासे विभक्त करे । जो लब्ध प्राप्त हो उतना सर्व-अभ्यन्तर बोथीमें स्थित चन्द्रोंके आदिम पथ और द्वीप अथवा समुद्रको जगतोके बीच अन्तराल होता है 1१५५८-५५९॥
लवणसमुद्र में अभ्यन्तर वीथी और जगतीके अन्तरालका प्रमाण
उणवण्ण-सहस्सा लव-सय-णवणउदि-जोयणा य तेचीसा । अंसा लवणसमुद्दे, अभंतर - वीहि - जगदि - विच्चालं ॥५६॥
अर्थ-लवणसमुद्र में अभ्यन्तर वीथी और जगतीके बीच उनचास हजार नौ सौ निन्यानबै योजन और एक योजनके इकसठ भागोंमसे तैंतीस भाग प्रमाण अन्तराल है ॥५६०।।
विशेषार्थ-लवणसमुद्रका विस्तार दो लाख योजन है और इसमें चन्द्र ४ हैं। उपयुक्त विधिके अनुसार प्रथम वीथी स्थित चन्द्र और लवणसमुद्रको अगतीके मध्यका अन्तर प्रमाण इसप्रकार है