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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ५४५ - ५४८
तो अनुदिशों में आदित्य नामक एक ही पटल है। इसमें प्रायू इतनी अर्थात् ३२ सागर प्रमारण होती है ।
५७८ ]
पंचाणुत्तरेसु सव्वत्थ-सिद्धि-सजिदो एक्को चैव पत्थलो । तत्थ विजय' - बइजयंत जयंत श्रपराजिवाणं जहष्णाउयस्स समयाधिय-बत्तीस-सागशेवमुक्कस्सं ते तीससागरोवमाणि । सम्वत्थ सिद्धि विमाणम्मि जहष्णुक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि ॥३३॥ एतिश्रो विसेसो सेसं पुच्वं व थत्तव्वं ।
एश्रनादगं समतं ॥ ६ ॥
अर्थ - पाँच श्रनुत्तरों में सर्वार्थसिद्धि नामक एक पटल है। उसमें विजय, वैजयन्त जयन्त और अपराजित विमानोंमें जघन्य आयु एक समय अधिक बत्तीस ( ३२ ) सागरोपम और उत्कृष्ट आयु तैंतीस ( ३३ ) सागरोपम प्रमाण है। सर्वार्थसिद्धि विमानमें जघन्य एवं उत्कृष्ट श्रायु तैंतीस ( ३३ ) सागरोपम प्रमाण है ।
इतनी विशेषता है, शेष पूर्ववत् कहना चाहिए ।
इसप्रकार आयुका कथन समाप्त हुआ ॥ ८ ॥ इन्द्रों एवं उनके परिवार देव-देवियों के विरह ( जन्म-मरणके अन्तर ) कालका कथनसर्व्वस इंदाणं, ताण े महादेवि लोयपालाणं ।
पडिइंदाणं विरहो, उक्कस्सं होदि छम्मासं ॥ ५४५ ।।
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अर्थ- सब इन्द्रों, उनकी महादेवियों, लोकपालों और प्रतीन्द्रोंका उत्कृष्ट विरह काल छह मास है ।। ५४५ ।।
तेत्तीसामर- सामाणियाण तणुरक्ख-परिस-तिदयाणं ।
चउ-मासं वर-विरहो, योच्छे' आणीय पहुवीणं ॥ ५४६ ॥ सोहम्मे छ- मुहुत्ता, ईसाणे चउ-मुहुत्त वर- विरहं । णव-दिवस दु-ति-भागो, सणक्कुमारम्भि कप्पम्मि ।। ५४७ ॥ बारस - दिणं ति-भागा, माहिदे पंच-ताल बम्हन्मि । सौदिदिणं महसुषके, सद-दिवस तह सहस्सारे ॥५४८ ||
१. द. ब. क. ज. ठ. विजयावद्दजयंत जयंत । २. ४ ख ताव । ३. द. व. वाच्छं ।