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गाथा : ५४८ ५५२ }
सत्तमो महाहियारो अर्थ आदिसे अस्सी पर्व व्यतीत हो जानेपर कातिक मास में कृष्ण पक्षको नवमीके दिन मघा नक्षत्रके रहते सातवा विषुप होता है ।।५४७।।
वइसाय-पुषिणमीए, अस्सिणि-रिक्खें जुगस्स पढमावो।
तेरणउदी पन्वेसु वि, होदि पुढं अट्ठमं उसुयं ।।५४८।। अर्थ-युगकी प्रादिसे तेरानब पर्व व्यतीत हो जानेपर वैशाखमासको पूणिमाके दिन अश्विनी नक्षत्रके रहते पाठवाँ विषुप होता है ।।५४८॥
कत्तिय - मासे सुस्किल, छट्ठीए तह य उत्तरासाढे ।
पंचुत्तर - एक्क - सयं, पख्यमदीदेसु णवमयं उसुयं ।।५४६।।
अर्थ-( युगकी आदिसे ) एक सौ पाच पोंके व्यतीत हो जानेपर कार्तिक मासमें शुक्ल पक्षाकी षष्ठी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्रके रहते नौवां विषुप होता है 11५४९।।
वइसाय-सुक्क-बारसि, उत्तरपुष्यम्हि फग्गुणी-रिक्खे।
सत्तारस-एक्क-सयं, पम्बमदीदेसु समयं उसुयं ।।५५०॥
प्रर्थ-( युगकी प्रादिसे ) एक सौ सत्तरह ( ११७ ) पर्व व्यतीत हो जानेपर वैशाखमासमें शुक्ल पक्षाकी द्वादशीके दिन 'उत्तरा' पद जिसके पूर्व में है ऐसे फाल्गुनी ( उत्तराफाल्गुनी ) नक्षत्रके रहते दसवां विषुप होता है ।।५५०।।।
उत्सपिणी-अवसर्पिणी कालोंके दोनों अयनों का एवं विषुपोंका प्रमाण
पण - वरिसे दुमरगीणं, दक्षिणत्तरायणं उसयं ।
चय प्राणेज्जो उत्सप्पिणि-पढम-प्रावि - चरिमंतं ।।५५१।। अर्थ-इस प्रकार उत्सपिणोके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय पर्यन्त पांच वर्ष परिमित युगों में सूर्योके दक्षिण और उत्तर अयन तथा विषुप जानकर लाने चाहिए ॥५५१।।
पल्लस्स-संख-भाग, दक्षिण-अयणस्स होधि परिमाणं। तेत्तियमेत्तं उत्तर - अयणं उसुपं च तदुगुणं ॥५५२॥
दक्खि प ३ । उत्त १ । उसुप प ३२। अर्थ-संख्यात पल्यके ( एक-एक वर्ष रूप ) जितने भाग होते हैं उतना प्रमाण उत्सपिणीगत दक्षिणायनका है और उतना ही प्रमाण उत्तरायणका है, तथा विषुपोंका प्रमाण (दो में से ) किसी एक अयनके समस्त प्रमाणसे दुगुना होता है ॥५५२।।