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४०० ] तिलीयपण्णत्तो
[ गाथा : ५५३ विशेषा-एक उत्सपिणी अथवा अवसर्पिणीकाल १० कोड़ाकोड़ी सागरका होता है और एक सागर १० कोड़ाकोड़ी पल्यका होता है। जबकि एक सागरमें १० कोड़ाकोड़ो पल्य होते हैं तब १० कोड़ाकोड़ी सागरमें कितने पल्य होंगे? ऐसा राशिक करनेपर एक उत्सपिणी अथवा अवसर्पिणी कालके (१०)२० अर्थात् एकके अकके आगे २८ शून्य रखनेपर जो २९ अंक प्रमाण संख्या प्राप्त होती है वही एक कोडाकोड़ी सागरके पल्योंका प्रमाण है।
कालका प्रमाण अद्धापल्य द्वारा मापा जाता है । जबकि एक अद्धा पल्यमें असंख्यात वर्ष होते हैं तब (१०)२८ अद्धापल्योंमें कितने वर्ष होंगे? इसप्रकार राशिक करनेपर वर्षोंका जो प्रमाण प्राप्त होता है उससे दुगुना प्रमाण अयनोंका होता है, इसीलिए संदृष्टि में दक्षिणायन अथवा उत्तरायण अयनोंका प्रमाण संख्यात पल्य दिया है । दक्षिणायन अथवा उत्तरायणके अयन प्रमाणसे दुगुना प्रमाण विषुपोंका होता है । अर्थात् एक अयनमें एक विषुप होता है इसलिए अयनोंके प्रमाण बराबर ही विषुपोंका प्रमाण होता है।
गाथामें जो दगुण शब्द पाया है वह दक्षिणायन अथवा उत्तरायण का जितना प्रमाण है उससे दुगुने विषुपोंके लिए आया है। संदृष्टि में संख्यात पल्यका द्विगुणित शब्द भी इसी अर्थका घोतक है।
अवसप्पिणीए एवं, बत्तव्वा ताम्रो रहड-घडिएणं ।
होति प्रणंताणता पुव्वं वा दुमणि - परिवत्तं ॥५५३॥
अर्थ-इसीप्रकार ( उपिणीके सदृश ) अवसर्पिणीकालमें भी रहंट की घटिकाओं सदृश दक्षिण-उत्तर प्रयन और विषुप कहने चाहिए। सूर्यके परिवर्तन पूर्ववत् अनन्तानन्त होते हैं ॥५५३॥
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